इस पुस्तक का सरोकार राजनीतिक दर्शन के क्षेत्र में ज्ञान के वि-उपनिवेशिकरण और वैचारिक स्वराज से है। यह पुस्तक पश्चिम से मिले दर्शन को सिद्धान्त-निर्माण के एकमात्र स्रोत के रूप में स्वीकार करने के बजाय अपने तजुर्बों को प्राथमिकता देने पर जोर देती है।
Add a review
Login to write a review.
Customer questions & answers