ऐ मेरे रहनुमा - \nतसनीम ख़ान की अनुशंसित कृति 'ऐ मेरे रहनुमा' प्रकाशित करते हुए सन्तोष का अनुभव हो रहा है। भारत ही नहीं विश्व की आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करनेवाले स्त्री-स्वर का यथार्थ इस उपन्यास की केन्द्रीय भावभूमि है। विशेषकर अल्पसंख्यक समाजों में मुस्लिम स्त्री जीवन की आज़ादी के गम्भीर सवालों को उजागर करता यह उपन्यास सदियों से चलती आ रही पितृसत्तात्मक संरचनाओं का तटस्थ मूल्यांकन करता है।\nइस कथा में आधुनिक स्त्री के जीवन के अँधेरों को भी बख़ूबी चित्रित किया गया है। इन अँधेरों से निकलने की छटपटाहट और प्रतिरोध की अभिव्यक्ति उपन्यास को महत्त्वपूर्ण बनाती हैं।\nइधर जबकि उपन्यास का कथ्य तफ़सीलों और आँकड़ों से कुछ बोझिल होकर आलोचना के दायरे में है तब तसनीम ख़ान का यह उपन्यास अपनी भाषा की ताज़गी और सहज रवानी के कारण पाठ के सुख से आनन्दित करता है।\nलेखिका ने छोटे-छोटे वाक्य और संवादों की स्फूर्ति से उपन्यास को सायास निर्मिति के दबाव से मुक्त कर स्त्री अस्मिता के प्रश्न को सहज रूप में प्रस्तुत किया है। उम्मीद है पाठक को यह उपन्यास अपने समाज का ही आत्मीय परिसर लगेगा।
तसनीम ख़ान - जन्म: 8 दिसम्बर, 1981। बाँगड़ महाविद्यालय डीडवाना से विज्ञान में स्नातक, जय नारायण व्यास यूनिवर्सिटी, जोधपुर से पत्रकारिता में एम.ए.। परिकथा के नवलेखन अंक जनवरी 2016 में पहली कहानी प्रकाशित। पाखी, मीमांसा व अन्य साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में निरन्तर कहानियाँ प्रकाशित। पिछले 11 वर्षों से राजस्थान पत्रिका समूह में कार्यरत, वर्तमान में वरिष्ठ उप-सम्पादक के रूप में कार्यरत । पुरस्कार— तीन बार पं. झाबरमल स्मृति राज्य स्तरीय पत्रकारिता पुरस्कार।
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