प्रभात को अपने जीवन के समापन के निकट होने की मार्मिक संवेदना है : काश! मैं मर सकता असम्भव अकस्मात् के आगोश में \nयह संग्रह मर्म-मानवीयता-विडम्बना के साथ- साथ नश्वरता, हमारे समय के अन्तर्विरोधों के बीच सक्रिय-मुखर जिजीविषा का दस्तावेज़ है। \nरज़ा पुस्तक माला में इसे प्रकाशित करते हुए हमें प्रसन्नता है।
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