वे प्राच्य व नव कवियों के शिरोमणि हैं, शब्दार्थ के आविष्कारक, रचनाओं की अधिकता और उनके आश्चर्यजनक रूप से भेदपूर्ण प्रस्तुतीकरण में वे अद्वितीय थे। यद्यपि गद्य व पद्य में अन्य गुरु भी अद्वितीय हुए हैं, परन्तु अमीर खुसरो सम्पूर्ण साहित्य कला में विशिष्ट और उच्च स्थान पर विराजमान हैं। ऐसा कला मर्मज्ञ जो काव्य की समस्त विशेषताओं में विशिष्ट स्थान रखता हो, इससे पूर्व में न हुआ है और न बाद में संसार के अन्त तक होगा। खुसरो ने गद्य और पद्य में एक पुस्तकालय की रचना की और काव्यशीलता को पुरस्कृत किया है। सर्वगुणसम्पन्न व अलंकारिकता के साथ ही वे अत्यन्त सात्विक थे। अपनी आयु का अधिकतर भाग पूजा-पाठ में व्यतीत किया। कुरान पढ़ते थे। ईश्वरीय आराधना में लीन रहते और प्रायः व्रत रखते थे। वे शेख के विशेष शिष्यों में थे। समाज में तल्लीन रहते थे। संगीत प्रेमी थे। अद्वितीय गायक थे। राग और स्वर रचना में निपुण थे। कोमल और निर्मल हृदय से जिस कला का सम्बन्ध है, उसमें वे सर्वगुणसम्पन्न थे । उनका अस्तित्व अद्वितीय था और अन्त समय में उनका स्वभाव भी अत्यधिक प्रेममय हो गया था।\n\nसाभार: जियाउद्दीन बर्नी 1282-1352 की तारीखे फीरोज़शाही' ।\n\n\nखुसरो को जितना पढ़िए उनके व्यक्तित्व में नयी परतें खुलती जाती हैं। सही अर्थों में खुसरो रजोगुणी थे। श्रीमद्भगवद्गीता पर्व के चौदहवें अध्याय में गीताकार ने कहा है कि कर्म की संज्ञा ही रजोगुण है-\nरजः कर्मणिभारत (14/9)\nइस कर्म का स्वरूप राग या खिंचाव है। रजोगुण रूपी कर्म की सम्भावना एक बिन्दु का दूसरे बिन्दु की ओर आकर्षित होना है। जब तक यह खिंचाव नहीं होगा रजोगुणी कर्म की ओर आकर्षित नहीं होगा । सत्वगुण अपने प्रकाश और आनन्द में डूबा रहता है, तमोगुण अपने अन्धकार के महल में छिपा रहता है। अगर वह इस मूर्च्छा से बाहर भी निकल आता है, तो भी उसके अन्दर कर्म की प्रेरणा उत्पन्न नहीं होती। जब सत्व तम की ओर या तम सत्व की ओर आकर्षित होते हैं, तो दोनों में एक राग या आकर्षण उत्पन्न होता है, और वही दोनों को मिलाने वाला रजोगुण है। उस राग का नाम तृष्णा है। गीताकार ने कहा है-\nरजो रागात्मक विद्धि तृष्णासंगसमुद्भवम्। (14/7) \nयह वस्तु मुझे मिल जाय, मेरा यह काम हो जाय। इस प्रकार की भावना का नाम ही तृष्णा है। बिना तृष्णा के गति नहीं है, बिना गति के विकास नहीं है, और बिना विकास के सृष्टि नहीं है। केवल सत्व और केवल तम से सृष्टि नहीं होती। इसके लिए तम और सत्व का आपसी टकराव आवश्यक है। जब दोनों टकराते हैं, तो नया गुण रजस उत्पन्न होता है, जिसका अर्थ है गति, विकास, इसी से सृष्टि की रचना सम्भव है।\n\nइसी पुस्तक से
ज़ाकिर हुसैन जाकिर पत्रकार, साहित्यकार और शिक्षक जाकिर हुसैन ज़ाकिर का जन्म उ.प्र. के देवरिया जिले के ग्राम बसडीला मैनुद्दीन में 10 जनवरी 1966 को हुआ । उन्होंने शिब्ली नेशनल पीजी कॉलेज आज़मगढ़ से स्नातक और गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर से एम. ए. उर्दू और पीएच.डी. की उपाधि ग्रहण करने के उपरान्त एस.एस. विलायत हुसैन पीजी कॉलेज सीतापट्टी देवरिया (उ.प्र.) में अध्यापन कार्य किया, तदोपरान्त बेसिक शिक्षा विभाग में शिक्षक हो गये। वे लम्बे समय से रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा के संवाददाता रहे। उनकी दो पुस्तकें हिन्दुस्तानी मीडिया और उर्दू और आलोचनात्मक निबन्धों का एक संकलन ख़ुदा हाए गुल प्रकाशित हो चुकी हैं। निबन्ध और आलोचनात्मक विश्लेषण विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं । अमीर खुसरो पर एक शोधपरक पुस्तक अमीर खुसरो : व्यक्तित्व, चिन्तन और अध्यात्म शीघ्र ही प्रकाशित होने वाली है। इस पुस्तक में अमीर खुसरो के व्यक्तित्व, चिन्तन और आध्यात्मिक चेतना के विषय पर 200 पृष्ठों की विस्तृत शोधपरक भूमिका के अतिरिक्त अब तक प्राप्य हिन्दवी काव्य को भी सम्मिलित किया गया है। इस पुस्तक का उर्दू संस्करण भी प्रेस में जाने के लिए तैयार है। इसके अतिरिक्त उर्दू में दो अन्य पुस्तकें सहाफ़त का आगाज़ व इर्तेका एवं गहवार-ए-इल्म व अदब गोरखपुर भी लेखन के अन्तिम चरणों में हैं।
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