BALOO RETWA

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बालू रेतवा हिन्दी के उन विरल उपन्यासों में एक है जिनकी सबसे बड़ी खूबी आंचलिकता है। इस तरह यह उपन्यास इस बात का एक और प्रमाण है कि रेणु के ‘मैला आँचल’ से हिन्दी में आंचलिकता की जो धारा शुरू हुई थी वह सूखी नहीं है बल्कि समय-समय ऐसे कथाकार नमूदार हो जाते हैं जो किसी नये इलाके में इस धारा को मोड़ देते हैं। प्रताप गोपेन्द्र ऐसे ही एक महत्त्वपूर्ण कथाकार हैं। ‘बालू रेतवा’ की कथाभूमि हिन्दी प्रदेश की भोजपुरी पट्टी है इसलिए स्वाभाविक ही इस उपन्यास की भाषा भोजपुरी की बोली-बानी में रची-पगी है; उसके मुहावरों, लोकोक्तियों, गीतों और भंगिमाओं से भरपूर। इस उपन्यास में पात्रों के संवाद, परिवेश, रहन-सहन, रीति- रिवाज और सुख-दुख का वर्णन आदि सब कुछ इतना जीवन्त है कि उनके कथाकार का लोहा मानना पड़ता है।

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