स्त्री-कविता अभिधा-लक्षणा-व्यंजना की जिन अलग-अलग बुनावटों में उपस्थित है, उसके विश्लेषण से इस समाज की अलग-अलग सरणियों में अलग-अलग ढंग से मुकुलित स्त्री-चेतना के कई रंग उजागर हो सकते हैं और यह भी स्पष्ट हो सकता है कि स्त्रीवाद एकाश्म (मोनोलिथ) नहीं है। अलग-अलग वर्गों-वर्णों-नस्लों से जुड़ी स्रियों की कुछ समस्याएँ तो विशिष्ट हैं ही, पर कुछ विरासतें उसकी साझा भी हैं–देह सबके यहाँ शोषण की आधारपीठिका है और सबकी भाषा के आँचल में जातीय स्मृतियों की वही मूँगफलियाँ बँधी हैं, जिन्हें फाँकते हुए स्त्रियों ने अलग-अलग कोनों से मुक्ति का महास्वप्न देखा, नाली का कीचड़ साफ़ करते हुए चौके की पिढ़िया को पढ़ाई की मेज बनाने का उपक्रम साधते हुए। सुषमा प्रतियोगिता परीक्षा के कई चरण लाँघकर कहीं पहुँची उन स्त्री कवियों में हैं, जिनमें बहनापे की आग बुझी नहीं है। संविधान द्वारा दिखाए गए सपने स्त्री-जीवन की विडंबनाएँ अभी तक नहीं काट पाए, क़ानून अभी भी काग़ज़ का फूल है–इसका प्रतिकार एक अलग तरह की अग्निधर्मा तेजस्विता के साथ इन कविताओं में उजागर है। – अनामिका सिंह
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Sushma SinghAdd a review
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