भारत में महाभारत - \nमहाभारत विश्व का ऐसा अद्वितीय महाकाव्य है जिसकी महाप्राणता ने असंख्य रचनाओं को जन्म दिया है।\nरचना की कालजयिता सिर्फ़ ख़ुद जीवित रहने में नहीं, उन रचना-पीढ़ियों को जन्म देने में है, जो अगले तमाम युग, भूगोलों और जीवनों में सर्जना नये उत्प्रेरण से अनेकानेक कालजयी कृतियों को रचती है। महाभारत में ऐसी उदारता, ऐसा लचीलापन और ऐसी निस्संगता है जो अपने अनुकूल ही नहीं, अपने विरुद्ध, रचना-संसारों को भी अर्थवान बना देती है। व्यास न तो रूढ़ि के पोषक हैं न उसके वाहक; उनके भीतर मानवता के प्रति ऐसी अपार राग-धारा तथा पारदर्शी दृष्टि और सृजन कौशल है, जो हर युग में मानवता विरोधी आवाज़, दुष्कृतियों और विलोमों से टक्कर लेने का पुरुषार्थ रखती और देती है। महाभारत के प्रवक्ता उग्रश्रवा का यह कहना सही है कि यहाँ वह सब है जो स्वर और व्यंजन के बीच निहित वाङ्मय में हो सकता है—इतनी विपुल ज्ञानराशि, भावराशि और विचार राशि को कौन ग्रहण करना न चाहेगा? पिछले पाँच हज़ार वर्षों से नागर और लोक में वह प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष और रिसकर आयी विविध अर्थवत्ता और प्राण-चेतना से साहित्य और कलाओं को अनुप्राणित करता रहा है।\nमहाभारत से गृहीत और प्रेरित रचनाओं का एक विशाल सागर है जो उसके नित नये अर्थ खोलता है। वैसे भी, कौन सौभाग्यशाली देश नहीं चाहेगा—ऐसी अक्षय-रसा 'कामधेनु' को दुहना, उससे पोषण पाना और जीवन के गहन अर्थों में अपने समय, सोच और व्यंजना में उतरना और उतरते चले जाना....।\nमहाभारत को कुछ लोग धर्म ग्रन्थ कहते हैं, पर उसके लिए धर्म का अर्थ 'मानवता' है। भला बताइए संसार में ऐसा कौन-सा धर्म ग्रन्थ है जो अपने ख़िलाफ़ एक भी आवाज़ सुन पाता है? ऐसी गुस्ताख़ी करने वाले कितने लोग सूली पर चढ़ाये गये, उन्हें ज़हर पिलाया गया और क़त्ल किया गया? पर हमारे पास क्या ऐसा एक भी उदाहरण है कि महाभारत के विरुद्ध रचने, कहने और बरतने के लिए किसी को दण्डित किया गया? फिर यह धर्म ग्रन्थ कैसे हुआ? यह काव्य तो स्वयं अपने भीतर विरोधों, विसंगतियों, विद्रूपताओं का ऐसा संसार रचता है कि आप उससे ज़्यादा क्या रचेंगे? एक महाप्राण रचना ऐसी ही होती है जहाँ प्रेम और वीभत्स एक साथ रह सकते हैं और हर एक को अपनी पात्रता और कामना के अनुरूप वह मिलता है जिससे वह अपने समय का सत्य अन्वेषित कर सके। संस्कृति ऐसे ही अनन्त स्रावों और टकरावों का नाम है, यह हमें महाभारत ने ही बताया है कि संस्कृति क्या होती है और कैसे रची जाती है? \nप्रतिष्ठित लेखक-मनीषी प्रभाकर श्रोत्रिय ने वर्षों की दूभर साधना से भारत में, और आसपास की दुनिया में, संस्कृत से लगाकर सभी भारतीय भाषाओं में महाभारत की वस्तु, सोच, प्रेरणा; यानि स्रोत से रची मुख्य रचनाओं पर इस ग्रन्थ में एक सृजनात्मक ऊर्जा से पकी भाषा में विचार-विवेचन किया है, यह जानते हुए भी कि महाभारत की 'दुनिया’ जो हज़ारों बाँहों में भी न समेटी जा सकी वह दो बाँहों में कैसे समेटी जायेगी?.....\nभारतीय ज्ञानपीठ अपने गौरवग्रन्थों की परम्परा में पाठकों को यह ग्रन्थ अर्पित करते हुए प्रसन्नता का अनुभव करता है।
प्रभाकर श्रोत्रिय - जन्म: जावरा (म.प्र.)। शिक्षा: एम.ए., पीएच.डी., डी.लिट्.। आलोचना, निबन्ध, नाटक विचार की पचास से अधिक पुस्तकें प्रकाशित। प्रमुख कृतियाँ: कविता की तीसरी आँख, कालयात्री है कविता, रचना एक यातना है, अतीत के हंस : मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद की प्रासंगिकता, मेघदूत : एक अन्तर्यात्रा, शमशेर बहादुर सिंह, नरेश मेहता, कवि परम्परा : तुलसी से त्रिलोचन (आलोचना); सौन्दर्य का तात्पर्य, समय का विवेक, समय समाज साहित्य, सर्जना का अग्निपथ, प्रजा का अमूर्तन, हिन्दी कल आज और कल (निबन्ध); समय में विचार (आलेख) ; इला, साँच कहूँ तो, फिर से जहाँपनाह (नाटक); अनुष्टुप, हिन्दी कविता की प्रगतिशील भूमिका, प्रेमचन्द : आज (सम्पादित)। मूल्यांकन-पुस्तकें: प्रभाकर श्रोत्रिय: आलोचना की तीसरी परम्परा—सम्पादक : डॉ. उर्मिला शिरीष, इला और प्रभाकर श्रोत्रिय के नाटक—सम्पादक : विभु कुमार, रूपाली चौधरी। कृतियों के भारतीय भाषाओं और अंग्रेज़ी में अनुवाद। मुख्य पुरस्कार: आचार्य रामचन्द्र शुक्ल पुरस्कार, आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी पुरस्कार, रामवृक्ष बेनीपुरी पुरस्कार, श्री शारदा सम्मान, साहित्य भूषण, दीनदयाल उपाध्याय सम्मान (उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान), शताब्दी सम्मान (भ. भा. हिन्दी साहित्य समिति, इन्दौर) आदि। के. के. बिरला फ़ाउंडेशन की फ़ेलोशिप विदेश यात्राएँ। पूर्व में: निदेशक, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली; निदेशक, भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता, हिन्दी प्राध्यापक। सम्पादक: साक्षात्कार, अक्षरा, वागर्थ, नया ज्ञानोदय, पूर्वग्रह, समकालीन भारतीय साहित्य।
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