मुझे प्रसन्नता है कि पुस्तक का हिन्दी संस्करण प्रकाशित हो रहा है। इस पुस्तक का अंग्रेज़ी अनुवाद प्रकाशनाधीन है। बहुत समय से मेरे पति व अन्य पारिवारिक मित्र मुझे पारम्परिक व्यंजनों पर पुस्तक लिखने हेतु प्रेरित कर रहे थे। यह सुझाव मैंने स्वीकार किया और यह पुस्तक आपके सामने है। आज के तकनीकी युग में पूरा विश्व वैश्विक गाँव में बदल रहा है तथा वहीं इंटरनेट की व्यापक पहुँच ने सांस्कृतिक एकीकरण को बढ़ावा दिया है। अतः वर्तमान में यह प्रासंगिक है, कि लुप्तप्राय लोक व्यंजनो को लिपिबद्ध कर उनको संरक्षित किया जाये। लोक व्यंजन केवल भोजन का अंश ही नहीं हैं अपितु अपने में पूरी लोक संस्कृति को समेटे हुए हैं। लोक संस्कृति में भोजन व व्यंजनों का स्थानीय, सामाजिक व आर्थिक जीवन से गहन सम्बन्ध होता है। थाली में परोसे गये व्यंजनों से पारिवारिक, सामाजिक व आर्थिक स्थिति का अन्दाज़ा लगाना सहज होता है। वर्तमान में पूरे भारतवर्ष में फिर से मोटे अनाज जैसे-जौ, ज्वार, रागी, बाजरा, कोदो, सांवा, कुटकी, कांगनी, मक्का की पौष्टिकता को स्वीकार किया जाने लगा है। ये सभी अनाज शरीर में उत्पन्न वात-पित्त व कफ के असन्तुलन को दूर करने में सहायक होते हैं। चरक के अनुसार वायु, पित्त व कफ के असन्तुलन से शरीर में रोगों का संग्रह होता है।
उर्मिला सिंह - पुस्तक पूर्ण होकर आपके समक्ष है। इसके लिए सर्वप्रथम मैं माँ बेल्हा देवी को हृदय से प्रणाम करती हूँ जिनके आशीर्वाद से यह पुस्तक पूर्ण हो कर आपके हाथ में है। मैं अपने स्वर्गीय माता-पिता श्रीमती प्यारी सिंह व श्री धर्मराज सिंह को प्रणाम करती हूँ। आज वे जहाँ भी हैं अपने आशीर्वाद से मुझे अभिसिंचित कर रहे होंगे। माता जी के बताये हुए व बनाये हुए बहुत से व्यंजन मेरी रसोई का हिस्सा तो समय-समय पर बनते ही हैं, इस पुस्तक में भी उन व्यंजनों को यथास्थान संजोया गया है। मैं अपने पति श्री राजेन्द्र प्रताप सिंह ‘मोती सिंह' (कैबिनेट मन्त्री, ग्राम विकास एवं समग्र ग्राम विकास, उत्तर प्रदेश शासन) के प्रति पुस्तक लेखन में सहयोग व सतत प्रेरणा देने के लिए आभारी हूँ। आऋत् (12 वर्ष) ने इस पुस्तक को श्लोक, सारणी व आयुर्वेद से जोड़ने का सुझाव दिया। इतनी अल्पायु में अत्यन्त सराहनीय सुझाव के लिए मैं आऋत् को आशीर्वाद देती हूँ तथा उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना करती हूँ। आऋत् ने पुस्तक के शोध सहायक की भूमिका का भी बखूबी निर्वहन किया है।
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