‘चुनावनीति’ किताब जहाँ सियासी पार्टियों के चुनावी हथकंडों के बारे में बताती है, वहीं भारत की लोकतांत्रिक और संघीय व्यवस्था पर पड़ रहे इसके नकारात्मक प्रभाव को भी रेखांकित करती है। यह समझना बहुत ज़रूरी है कि पॉलिटिकल पंडितों ने चुनावों को समझने के लिए जिन सिद्धांतों को सेट किया है, वे तर्कों और तथ्यों के साथ मेल नहीं खा रही हैं। सच यह है कि चुनावों को किसी सेट फॉर्मूले के आधार पर समझा नहीं जा सकता। विधानसभा हो या फिर लोकसभा, सभी चुनाव अलग-अलग परिस्थितियों पर निर्भर होते हैं। धर्मवाद, जातिवाद और क्षेत्रवाद की राजनीति भी परिस्थितियों के हिसाब से अलग-अलग समय पर काम करती है। यही वजह है कि पार्टियों को इन चुनावी हथकंडों के सहारे हर बार सफलता नहीं मिलती है। इस तरह की तमाम चीजें हैं, जिन्हें इस किताब के ज़रिए खोलने की कोशिश की गई है।
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