ध्यान का विज्ञान प्रकृति से होने वाला विकास मनुष्य पर आकर ठहर गया है। यह एक तथ्य है। यहां तक कि वैज्ञानिक भी अब इस तथ्य को समझने लगे हैं: हजारों वर्षों तक मनुष्य की चेतना में कोई बदलाव नहीं हुआ--वह ज्यों का त्यों बना रहा है, जैसे कि प्रकृति का कार्य समाप्त हो चुका है। अब मनुष्य को अपने आगे के विकास का कार्य अपने हाथों में लेना पड़ेगा। यही तो है जिसे धर्म कहा जाता है। धर्म का अर्थ है कि आदमी ने अब अपने पैरों पर खड़ा होना शुरू कर दिया है, वह अपने स्वयं के होने के लिए जिम्मेवार होने लगा है, उसने यह देखना, खोजना और पूछना शुरू कर दिया है कि ‘‘मैं कौन हूं?’’ और यह मात्र कुतूहल ही नहीं होना चाहिए। दर्शनशास्त्र उपजता है कुतूहल से। धर्म एक सच्ची, प्रामाणिक खोज है; यह जिज्ञासा है। और कुतूहल और जिज्ञासा में बड़ा अंतर है। कुतूहल बचकाना है, बस सिर में थोड़ी सी खुजलाहट। तुम चाहोगे कि थोड़ा सा खुजला लूं और फिर तुम्हें संतुष्टि मिल जाएगी; दर्शनशास्त्र वही खुजलाहट है। धर्म जीवन और मृत्यु का विषय है। दर्शनशास्त्र से तुम्हारा कभी संबंध नहीं हो पाता है, तुम अलग बने रहते हो।तुम खिलौनों के साथ खेलते हो, लेकिन वह जीवन और मृत्यु का प्रश्न नहीं है। तुम जानकारी इकट्ठी कर लेते हो, लेकिन उसे आचरण में कभी नहीं उतारते। ओशो
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