दुर्गादास -\n\n'दुर्गादास' उपन्यास-सम्राट् प्रेमचन्द का एक ऐतिहासिक उपन्यास है। यह मूलतः उर्दू लिपि में लिखा गया था जिसे हिन्दी में लिप्यन्तरण करके बाद में सन् 1915 में प्रकाशित किया गया। इसमें एक राष्ट्रप्रेमी, साहसी राजपूत दुर्गादास के संघर्षपूर्ण जीवन की कहानी है। स्वयं प्रेमचन्द के शब्दों में- "राजपूताना में बड़े-बड़े शूर-वीर हो गये हैं। उस मरुभूमि ने कितने ही नर-रत्नों को जन्म दिया है; पर वीर दुर्गादास अपने अनुपम आत्म-त्याग, अपनी निःस्वार्थ सेवा-भक्ति और अपने उज्ज्वल चरित्र के लिए कोहनूर के समान हैं। औरों में शौर्य के साथ कहीं-कहीं हिंसा और द्वेष का भाव भी पाया जाएगा, कीर्ति का मोह भी होगा, अभिमान भी होगा; पर दुर्गादास शूर होकर भी साधु पुरुष थे।" एक दुर्लभ कृति-'दुर्गादास'।
प्रेमचन्द - प्रेमचन्द (1880-1936) का जन्म बनारस के निकट लमही गाँव में हुआ था। स्कूल की शिक्षा पूरी करने के बाद अनेक प्रकार के संघर्षों से गुज़रते हुए उन्होंने बी.ए. की पढ़ाई पूरी की। इक्कीस वर्ष की उम्र में उन्होंने लिखना प्रारम्भ किया। लेखन की शुरुआत उर्दू में नवाब राय नाम से की और 1910 में उनकी उर्दू में लिखी कहानियों का पहला संकलन 'सोज़ेवतन' नाम से प्रकाशित हुआ। इस संकलन को ब्रिटिश सरकार ने ज़ब्त करवा दिया। इसके बाद उनके जीवन में नया मोड़ आया। अपने लेखन का माध्यम उन्होंने हिन्दी भाषा को बनाया और 'प्रेमचन्द' नाम से लिखना शुरू किया। आगे चलकर यही नाम भारतीय कथा-साहित्य में अमर हुआ। प्रेमचन्द ने 1920 तक सरकारी नौकरी की। इसी समय उपनिवेशवादी ब्रिटिश शासन के विरुद्ध पूरे देश में सत्याग्रह शुरू हुआ जिसका उनके मन पर गहरा असर हुआ और उन्होंने नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। प्रेमचन्द ने 1923 में सरस्वती प्रेस की स्थापना की और 1930 से 'हंस' नामक ऐतिहासिक पत्रिका का सम्पादन प्रकाशन शुरू किया। प्रेमचन्द ने लगभग तीन सौ कहानियाँ लिखी हैं। इनके अलावा अनेक उपन्यास और वैचारिक निबन्ध लिखे। गोदान, सेवासदन, प्रेमाश्रम, ग़बन, रंगभूमि, कर्मभूमि, निर्मला आदि उनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं। 'प्रेमचन्द : विविध प्रसंग' उनके वैचारिक लेखों का संकलन है।
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