हिन्दी एकांकी का उदय तो संस्कृत नाट्य - साहित्य के प्राचीन आदर्शों पर भारतेन्दु-युग में ही हो चुका था। चार श्रेणियों में विभाजित एकांकी में जहाँ राष्ट्रीय जागरण का स्वर मुखरित हो रहा था, वहाँ राष्ट्रीय-जागृति के साथ समाज की सड़ी-गली रूढ़ियों, जीर्णशीर्ण मान्यताओं, पुरातनपंथीपन, मद्यपान, वेश्यागमन, छुआछूत, व्यभिचार, जाति-भेद, धर्म की संकीर्णता, विदेशीपन की गुलामी आदि सामाजिक कुरीतियों पर तीखा प्रहार भी किया।\nधर्म के प्रति जनता के हृदय में श्रद्धा-भाव था । इस युग में एक वर्ग ऐसा भी था, जो धार्मिक कथानकों पर आधारित पौराणिक एकांकियों के द्वारा भारतीय संस्कृति, आदर्शवादी विचारधारा प्रस्तुत कर रहा था, तो वहीं एक-दूसरे वर्ग ने व्यंग्य के माध्यम से समाज-सुधारवादी आन्दोलन को आगे बढ़ाया। द्विवेदी-युग में कुछ विषय भारतेन्दु-युग वाले ही थे, किन्तु कुछ नए विषय भी आए। जैसे- ऑनरेरी मैजिस्ट्रेट की कमजोरियाँ, म्युनिसिपैलिटी का चुनाव, पाश्चात्य शिष्टाचार का अन्धानुकरण, मालिक नौकर-समस्या, फैशन-परस्ती के विभिन्न रूप, नारी-स्वातन्र्च्य की आवश्यकता, हिन्दी की दुर्दशा, अंग्रेजी वातावरण से फैलनेवाले दोष, सार्वजनिक सेवकों की कमजोरियाँ आदि । जहाँ एक ओर इन सामाजिक त्रुटियों को दूर करने के प्रयत्न किये गये, वहीं दूसरी ओर सामाजिक नव-निर्माण के लिए प्रबुद्ध एकांकीकारों ने नए रूप भी प्रस्तुत किये।\nआधुनिक शैली के हिन्दी एकांकी का विकारा पाश्चात्य अनुकरण की देन है। पश्चिम के अनुकरण पर हिन्दी में पाश्चात्य शैली के एकांकियों के नये प्रयोग हुए। संस्कृत में पुराने टाइप के नाटकों के प्रयोग अवश्य हैं, किन्तु ये पुरानी नाट्य शैलियों में हैं। हिन्दी का एकांकी संस्कृत रीति से नहीं, टेक्नीक और आदर्शों से प्रभावित हुआ।\nप्रस्तुत ग्रन्थ प्रसिद्ध आलोचक डॉ. रामचरण महेन्द्र की एक बहुचर्चित पुस्तक है। इस पुस्तक में लेखक ने जहाँ भारतेन्दुकालीन एवं द्विवेदीयुगीन एकांकी की विचारधाराओं पर विशद प्रकाश डाला है, वहाँ आधुनिक हिन्दी एकांकी के विकास के परिप्रेक्ष्य में पाश्चात्य प्रभाव की ओर ध्यान आकर्षित करने के साथ प्रमुख एकांकीकारों की कृतियों का सटीक मूल्यांकन भी किया है।\nएकांकी और एकांकीकार एकांकी के उद्भव, विकास तथा प्रमुख एकांकीकारों की रचनाओं का आलोचनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करनेवाली एक संग्रहणीय पुस्तक ।
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रामचरण महेन्द्रAdd a review
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