घास का पुल - \nइधर हमारे समाज में धर्म की परिघटना और ज़्यादा उलझती गयी है क्योंकि सत्ता की राजनीति से इसका सम्बन्ध और गहराया है। यह वही समय है जब नव-उदारवाद की जड़ें भी फैली हैं। इस फ़ौरी राजनीति में साम्प्रदायिकता धर्म की खाल ओढ़ लेती है जिसमें 'दूसरा' फ़ालतू है। जिस धर्म का मूल अद्वैत हो, उसमें दूसरा संदिग्ध हो जाय, इससे बड़ी विडम्बना और क्या होगी! यह उपन्यास इस प्रक्रिया के व्यापक तन्तुओं को पकड़ने का प्रयास करता है।\nदूसरी तरफ़ धर्म का सकारात्मक पक्ष है। यह सामान्य जीवन के दुख को धीरज और उम्मीद देता है। फ़न्तासी ही सही, यह उस अँधेरे कोने को भरता है। जो आदमी के भीतर सनातन है। इसका ख़तरा यही है कि यह सामाजिक जड़ता में तब्दील हो जाता है। कबीर के मुहावरे में कहें तो धर्म यदि 'निज ब्रह्म विचार' तक सीमित रहे तो वह सकारात्मक है। जैसे ही यह संगठित धर्म में बदलता है, उसके सारे ख़तरे उजागर हो जाते हैं।\nयह उपन्यास धर्म की सामाजिक परिणतियों की शिनाख़्त का एक प्रयास है, जो धर्म के संगठित रूपों से पैदा होती हैं। इसमें एक ओर माला फेरती चौथे धाम की प्रतीक्षा करती अम्मा हैं, दूसरे छोर पर आतंकी के शक़ पर ग़ायब हुआ असलम है जिसका शिज़रा वाज़िद अली शाह से जुड़ता है — जिनके लिए 'क़ाबा' और 'बुतख़ाना' में कोई फ़र्क़ नहीं था। इसका अंजाम एक गहरी मानवीय त्रासदी है जिसमें एक किसान का उजड़ना भी शामिल है।
रवीन्द्र वर्मा - जन्म: 1 दिसम्बर, 1936, झाँसी (उ.प्र.) में। शिक्षा: प्रारम्भिक शिक्षा झाँसी में, 1959 में प्रयाग विश्वविद्यालय से एम.ए. (इतिहास)। सन् 1965 से कहानियों का पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशनारम्भ। अपनी विशिष्ट छोटी कहानियों के रूप में एक नयी कथा-विधा के प्रणेता माने जाते हैं। इधर कुछ कविताएँ भी आयी हैं। प्रकाशित कृतियाँ: 'कोई अकेला नहीं है', 'पचास बरस का बेकार आदमी' (कहानी-संग्रह); 'क़िस्सा तोता सिर्फ़ तोता', 'गाथा शेख़चिल्ली', 'माँ और अश्वत्थामा', 'जवाहर नगर', 'निन्यानबे', 'पत्थर ऊपर पानी', 'मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगा', 'दस बरस का भँवर', 'आख़िरी मंजिल', 'क्रान्ति कक्का की जन्म शताब्दी' (उपन्यास)। कुछ कहानियों का देशी-विदेशी भाषाओं में अनुवाद 'आख़िरी मंज़िल' (उपन्यास) का पंजाबी में। आलोचनात्मक लेखों का एक संग्रह शीघ्र प्रकाश्य।
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