Gulmehnadi Ki Jhaariyaan

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गुलमेंहदी की झाड़ियाँ - \n'गुलमेंहदी की झाड़ियाँ' युवा कथाकार तरुण भटनागर का पहला कहानी-संग्रह इसलिए भी पाठकों का ध्यान आकर्षित करेगा क्योंकि तरुण की कहानियों में कथ्य और तथ्य का एक ऐसा युवा ताज़ापन है जो परिपक्व तो है ही, परिपूर्ण भी है। तरुण दो सदी के अवान्तर में आयी तमाम समस्याओं, चुनौतियों और उनसे सतत संघर्षों को अपने रचनात्मक सरोकारों में इस विशिष्ट अन्दाज़ में शामिल करते हैं कि पाठक यथार्थ के ज्ञात-अज्ञात अवकाश में स्वयं को पाता है—कभी सहमा, कभी प्रेमिल, कभी जूझता, कभी हास्यास्पद, कभी पीड़ित... किन्तु अन्ततः जीवित संगति-असंगति के विडम्बनात्मक वर्तमान का सन्धान ही तरुण भटनागर का रचनात्मक अवदान है।\nसँपेरों की दन्तकथाओं, मिथकों के पारम्परिक स्पेस और छाया-प्रतिछाया के अन्यतम जादू में कथाकार ऐसा यथार्थ उपस्थित करता है जो अफ़गान शरणार्थियों की पीड़ा और जीने की क़वायद में जूझते सँपेरों की जीवटता से एक साथ जुड़ता है भाषा और शिल्प के स्तर पर ही नहीं, बल्कि सदी के संक्रमणकाल में उभरे ज़रूरी सवालों से भी पाठकों का साक्षात् करवायेगा यह कहानी-संग्रह 'गुलमेंहदी की झाड़ियाँ'।

तरुण भटनागर - इकतालीस वर्षीय तरुण मूलतः छत्तीसगढ़ के रहनेवाले हैं। रायपुर में जनमे और सुदूर आदिवासी अंचल बस्तर के क़स्बे में बस गये। पहले गणित और इतिहास से स्नातकोत्तर। लगभग सात वर्ष आदिवासी क्षेत्रों में अध्यापन और उसके बाद राज्य प्रशासनिक सेवा में। लेखन का प्रारम्भ कविताओं से। कुछ कविताएँ कथन, कथादेश, प्रगतिशील वसुधा, साक्षात्कार, रचना समय, अक्षर पर्व, वर्तमान समय आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित। कहानियों की शुरुआत क़ाफ़ी बाद में अब तक लगभग दो दर्जन कहानियाँ विभिन्न पत्रिकाओं में। कहानी-संग्रह 'गुलमेंहदी की झाड़ियाँ' मध्य प्रदेश हिन्दी साहित्य अकादेमी के 'वागेश्वरी पुरस्कार' (2008) से सम्मानित।

तरुण भटनागर

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