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हड़ताली मोड़ - \nग्रामीण जीवन के कथाशिल्पी रामधारी सिंह दिवाकर के कहानी-संग्रह 'हड़ताली मोड़' की कहानियाँ गाँव के बदलते यथार्थ के विविध पक्षों को गहन संवेदना के साथ उकेरती हैं। बदलाव की दृश्य-अदृश्य प्रक्रिया से गुज़र रहे गाँव जिस रूप-रंग में दिवाकर जी की कहानियों में रूपायित हुए हैं, अन्यत्र देखने को नहीं मिलते। समाज के हाशिये पर रह रहे दबे-कुचले लोग लोकतान्त्रिक अधिकार की आबो-हवा में, स्वाभिमान से सिर उठाकर सामन्ती व्यवस्था को चुनौती देने लगे हैं। दलित चेतना का उभार नये सामाजिक परिप्रेक्ष्य के भवितव्य का संकेत देता है। बेशक, इसके अपने अन्तर्विरोध भी हैं जिनसे बच निकलने का अस्मितावादी प्रयास लेखक ने नहीं किया है।\nस्त्री-विमर्श के बौद्धिक वाग्विलास को अँगूठा दिखाती 'रंडियाँ' जैसी कहानी भी इस संग्रह में है। गाँव की आधारभूत भावात्मक संरचना के टूटने की पीड़ा का समकालीन लोकतान्त्रिक परिवेश में विस्थापन आश्वस्त करता है कि कुछ बेहतर होगा।\nगाँव की 'बोली-बानी' में पगी दिवाकर जी की कथा-भाषा में ग़ज़ब का प्रवाह और पठनीयता है।

रामधारी सिंह दिवाकर - जन्म: 1 जनवरी, 1945, अररिया ज़िले (बिहार) के नरपतगंज गाँव में। शिक्षा: एम.ए., पीएच.डी. (हिन्दी)। मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा (बिहार) में प्रोफ़ेसर एवं हिन्दी विभागाध्यक्ष पद से 2005 में अवकाश ग्रहण। अरसे तक बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् पटना के निदेशक रहे। प्रथम उल्लेखनीय कहानी 'नई कहानियाँ' के जून 1971 के अंक में छपी। तब से अनवरत लेखन। हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में शताधिक कहानियाँ, उपन्यास आदि प्रकाशित। प्रकाशित कृतियाँ: 'नये गाँव में', 'अलग-अलग अपरिचय', 'बीच से टूटा हुआ', 'नया घर चढ़े', 'सरहद के पार', 'धरातल', 'माटी-पानी', 'मखान पोखर', 'वर्णाश्रम' तथा 'झूठी कहानी का सच' (कहानी-संग्रह); 'क्या घर क्या परदेस', 'काली सुबह का सूरज', 'पंचमी तत्पुरुष', 'आग-पानी अवकाश', 'टूटते दायरे', 'अकाल संध्या', 'दाख़िल ख़ारिज' (उपन्यास); 'मरगंगा में दूब' (आलोचना)। इनके अतिरिक्त शोध, आलोचना आदि। कई कहानियाँ विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनूदित प्रकाशित। 'शोकपर्व' और 'मखान पोखर' पर फ़िल्म निर्माण।

रामधारी सिंह दिवाकर

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