हिन्दी आलोचना का स्वत्व - हिन्दी आलोचना को लेकर अनेक प्रकार की बातें कही जा रही हैं जिनका निष्कर्ष यह निकलता है कि वह संकट के दौर से गुज़र रही है। संकट है, पर यह संकट आलोचना का कम, युग के दबावों का ज़्यादा है। यह संकट धारणाओं और विमर्शों के टकरावों को संकट है, मगर इस संकट के बावजूद आज हिन्दी आलोचना देशीयता और वैश्विकता के बीच संवाद बनाते हुए अपनी एक ख़ुद की पहचान रखती है। निर्विवाद रूप से इसमें आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है, भले ही उनके निष्कर्षों को लेकर विवाद होते रहे हैं और भारतीय स्वतन्त्रता के बाद की आलोचना शिविरों में बँट गयी, मगर इससे आचार्य शुक्ल का ऐतिहासिक महत्त्व कम नहीं होता और न ही इससे यह समझा जाय कि आज हिन्दी आलोचना कुछ हीन स्थिति में है। आचार्य शुक्ल ने पहली बार हिन्दी आलोचना को संस्कृत काव्यशास्त्र और पाश्चात्य आलोचना, दोनों के प्रभावों से मुक्त करके उसकी एक निजी पहचान क़ायम की। अजय वर्मा की यह पुस्तक हिन्दी आलोचना की इसी निजी पहचान की तलाश आज के सन्दर्भ में करती है। इसके लिए इन्होंने इसके पूरे ऐतिहासिक विकास क्रम का विश्लेषण करते हुए आज की धारणाओं और विमर्शों के टकराव के जटिल दौर में उसकी दशा और दिशा पर विचार किया है। लेखक इस पुस्तक में न सिर्फ़ ब्योरे प्रस्तुत करता है बल्कि पूरी पुस्तक में वह बहस करता दिखलाई देता है। हिन्दी आलोचना में विवाद के जितने भी पुराने और नये मुद्दे हैं, उन सबको वह प्रश्नों के दायरे में लाता है और आज के सन्दर्भ में उनकी प्रासंगिकता पर भी विचार करता है।
अजय वर्मा - मधेपुरा (बिहार) ज़िले के खोड़ागंज नामक गाँव में जन्म। प्रारम्भिक शिक्षा गाँव एवं पास के क़स्बे उदा किशुनगंज में। उच्च शिक्षा जमालपुर (मुंगेर) एवं भागलपुर में नया ज्ञानोदय, तद्भव, हंस, आलोचना, वागर्थ, अन्यथा, संवेद, परिचय, पाखी आदि पत्रिकाओं एवं प्रभात ख़बर, हिन्दुस्तान आदि दैनिक पत्रों में अनेक आलोचनात्मक लेख एवं सामाजिक विषयों पर टिप्पणियाँ प्रकाशित। एक पुस्तक 'सत्ता, संस्कृति और नवसाम्राज्यवाद' शीर्षक से प्रकाशित।
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