हिन्दी साहित्य का आदिकाल - \nहिन्दी साहित्य के इतिहास की पहली सुसंगत और क्रमबद्ध व्याख्या का श्रेय अवश्य आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को जाता है, मगर उसकी कई ग़ुम और उलझी हुई महत्त्वपूर्ण कड़ियों को खोजने और सुलझाने का यश आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का है। अगर द्विवेदी न होते तो हिन्दी साहित्य का इतिहास अभी तक अपनी व्याख्या सम्बन्धी कई एकांगी धारणाओं का शिकार रहता और उसकी परम्परा में कई छिद्र रह जाते। इतिहास के प्रति एक अन्वेषक और प्रश्नाकुल मुद्रा, परम्परा से बेहद गहरे सरोकार तथा मौलिक दृष्टि के मणिकांचन योग से बना था हजारी प्रसाद द्विवेदी का साहित्यिक व्यक्तित्व। और उन्होंने साहित्येतिहास और आलोचना को जो भूमि प्रदान की, हिन्दी की आलोचना आज भी वहीं से अपनी यात्रा शुरू करती दिखती है। ख़ास तौर पर हिन्दी साहित्य के आदिकाल की पूर्व व्याख्याएँ उन्हें शंकित बनाती रहीं और अपने व्यापक चिन्तन से अपनी शंकाओं को उन्होंने साबित किया। हिन्दी साहित्य के आदिकाल के मूल्यांकन से जुड़े उनके व्याख्यान आज भी हिन्दी साहित्य की अनमोल धरोहर हैं। जब भी हिन्दी साहित्य के इतिहास और उनकी परम्परा की बात की जायेगी, ये व्याख्यान एक प्रकाश-स्तम्भ की-सी भूमिका निभाते रहेंगे।\n\nअन्तिम पृष्ठ आवरण - \nहिन्दी साहित्य का सचमुच ही क्रमबद्ध इतिहास पं. रामचन्द्र शुक्ल ने ‘हिन्दी-शब्दसागर की भूमिका' के रूप में सन् 1929 ई. में प्रस्तुत किया। बाद में यह कुछ परिवर्द्धन के साथ पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ। शुक्ल जी ने प्रथम बार हिन्दी साहित्य के इतिहास को कविवृत्तसंग्रह की पिटारी से बाहर निकाला। इस प्रकार, सन् 1929 ई. में पहली बार शिक्षित जनता की प्रवृत्तियों के अनुसार होनेवाले परिवर्तन के आधार पर साहित्यिक रचनाओं के काल-विभाजन का प्रयास किया गया। उनकी दृष्टि व्यापक थी। उन्होंने अपने इतिहास के पुस्तक रूप में प्रकाशित प्रथम संस्करण में आदिकाल के भीतर अपभ्रंश रचनाओं को भी ग्रहण किया था।
हजारी प्रसाद द्विवेदी - बचपन का नाम बैजनाथ द्विवेदी। श्रावण शुक्ल एकादशी सम्वत् 1964 (1907 ई.) को जन्म। जन्म स्थान आरत दुबे का छपरा, ओझबलिया, बलिया, उत्तर प्रदेश। संस्कृत महाविद्यालय, काशी में शिक्षा। 1929 ई. में संस्कृत साहित्य में शास्त्री और 1930 में ज्योतिष में शास्त्राचार्य। 8 नवम्बर, 1930 से 1950 तक हिन्दी शिक्षक के रूप में शान्तिनिकेतन में अध्यापन। लखनऊ विश्वविद्यालय में सम्मानार्थ डॉक्टर ऑफ़ लिट्रेचर की उपाधि 1949। सन् 1950 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी प्रोफ़ेसर और विभागाध्यक्ष के पद पर नियुक्त। 'विश्वभारती' विश्वविद्यालय की एक्ज़ीक्यूटिव काउंसिल के सदस्य 1950-53। काशी नागरी प्रचारिणी सभा के अध्यक्ष 1952-53। नागरी प्रचारिणी सभा, काशी के हस्तलेखों की खोज (1952)। सन् 1957 में 'पद्मभूषण'। 1960-67 के दौरान, पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ में हिन्दी के प्रोफ़ेसर और विभागाध्यक्ष सन् 1962 में पश्चिम बंग साहित्य अकादेमी द्वारा टैगोर पुरस्कार। 1967 के बाद पुनः काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में। 1974 में केन्द्रीय साहित्य अकादेमी द्वारा पुरस्कृत। जीवन के अन्तिम दिनों में 'उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान' के उपाध्यक्ष रहे। 19 मई, 1979 को देहावसान।
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