मैंने अपनी जानकारी में इस तरह की वैविध्यपूर्ण पुस्तक हिंदी कविता पर हाल के दिनों में नहीं पढ़ी। ये लेख/टिप्पणियाँ उन खिड़कियों की तरह से हैं, जहाँ आप इन कवियों के घर, दरवाजे और चेहरे से मुखातिब होते हैं। समकालीनता का दस्तावेजीकरण तो सरल होता है, मगर उसके प्रति संगत दृष्टिकोण जिस तरह की आत्म-आलोचनात्मक दृष्टि और तटस्थता की माँग करती है, वह कविता-समय के भीतर उतरे बगैर संभव नहीं। इस पुस्तक में अंतर्दृष्टि भी है और काव्यात्मक विवेक भी। यह महज आलोचना की पुस्तक नहीं, बल्कि आलोचनात्मक संवाद की पुस्तक है, जहाँ लेखक के ही शब्दों में उसका कवि और आलोचक संवादरत हैं। दोनों एक-दूसरे को समृद्ध करते हैं। कहना न होगा कि यह समृद्धि हिंदी पाठकीय जगत् के लिए अनुपम उपहार है। \n—अच्युतानंद मिश्र \nदलबद्धता या शिविरबद्धता से दूर मुक्त हृदय और पैनी दृष्टि से कवि के संसार में उतरने का यह सामर्थ्य किसी को भी प्रभावित करेगा। एक गहरी अंतर्दृष्टि की बुनियाद पर आप बिना लाग-लपेट के बड़ी तीक्ष्णता व स्पष्टता के साथ अपनी बात कहते हैं और यह आलोचना का साहस है। \n—विजय कुमार
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