इतवार नहीं - 'सनातन बाबू का दाम्पत्य', 'रोमियो जूलियट और अँधेरा' व 'आदिग्राम उपाख्यान' के बाद कुणाल सिंह की यह चौथी पुस्तक है। नयी सदी में उभरे, नयी संवेदना व नव-यथार्थ को, बज़रिये कथा के, उकेरने वाले कथाकारों में वे गिने-चुने युवा लेखकों में हैं जिनकी चौथी पुस्तक पाठकों के हाथ में है। सुखद यह है कि संग्रह में संगृहीत कहानियों से गुज़रते हुए आपको उसी सान्द्रता व घनत्व का अहसास होगा जो अब तक कुणाल की लेखकी का पर्याय-सा बन चुका है। यह उनकी पहले की समस्त पुस्तकों में स्वतःसिद्ध है कि कुणाल सिंह की क़िस्सागोई और भाषिक संरचना अनूठी है, यहाँ यह दुहराने की ज़रूरत नहीं; हाँ लेकिन इन कहानियों से गुज़रते हुए यह ज़रूर महसूस होता है, कि 'सनातन बाबू का दाम्पत्य' का लेखक अब अपनी प्रौढ़ावस्था को प्राप्त कर चुका है। 'डूब', 'झूठ तथा अन्य कहानियाँ', 'दिलवाले दुल्हनियाँ ले जाएँगे' जैसी कहानियाँ पाठक के अन्तस् को झरझोर देती हैं। ‘प्रेमकथा में मोज़े की भूमिका...' व 'इतवार नहीं' जैसी कहानियाँ शिल्प के स्तर पर तो नयी ज़मीन तोड़ती ही हैं, व्यापक सामाजिक सरोकारों को भी नयी आँख से देखती हैं। एक नितान्त स्वागत योग्य कथा-संग्रह।
कुणाल सिंह - 22 फ़रवरी, 1980 को कोलकाता के समीपवर्ती एक गाँव में जन्म। आरम्भिक शिक्षा वहीं से प्रेसिडेंसी कॉलेज, कोलकाता से हिन्दी साहित्य में एम.ए. (प्रथम श्रेणी में (प्रथम) के बाद जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नयी दिल्ली से एम.फिल. (प्रथम श्रेणी में प्रथम)। यहीं से शोध कार्य की शुरुआत, लेकिन 'पीएच.डी-य' समझौते न कर पाने की वजह से अधबीच ही रिहाई। कहानियों की अब तक दो पुस्तकें—'सनातन बाबू का दाम्पत्य' तथा 'रोमियो जूलियट और अँधेरा'। एक उपन्यास 'आदिग्राम उपाख्यान'। कई कहानियाँ बांग्ला, ओड़िया, उर्दू, गुजराती, कन्नड़, मलयालम, पंजाबी, अंग्रेज़ी, जर्मन तथा इतालवी में अनूदित। इटली के तौरैनो विश्वविद्यालय में कुछ कहानियों पर शोध व पर्चे। साहित्य अकादेमी युवा पुरस्कार (2012), भारतीय भाषा परिषद युवा पुरस्कार (2011), भारतीय ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार (वर्ष 2010 तथा वर्ष 2006), कथा अवार्ड (2005), कृष्णबलदेव वैद फ़ेलोशिप (2005), प. बंग राज्य युवा पुरस्कार (1999), नागार्जुन शलाका सम्मान (1999) आदि। सम्पादन के क्षेत्र में पिछले एक दशक से।
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