जहाँ फ़व्वारे लहू रोते हैं के रिपोर्ताज उस समय के साक्षी हैं जो सुप्रसिद्ध लेखिका नासिरा शर्मा की नज़रों के सामने से न केवल गुज़रा है बल्कि उसकी बारीकियों को भी उन्होंने पकड़ा है। इसमें उसी दौर के बड़े हस्ताक्षरों एवं सियासतदाँ के साथ तमाम साक्षात्कार एवं वार्ताओं के ज़रिये जीवन्त संवाद भी क़ायम किये हैं। यह वही समय था जिसमें ईरान-क्रान्ति की नयी आहट के साथ-साथ लेखिका ने क्रान्ति की एक चश्मदीद गवाह के तौर पर साहित्य में हस्ताक्षर भी किये। दुनिया की अन्य क्रान्तियों की तरह इसमें भी खूब खून बहा। ईरानी क्रान्ति के बाद के वैश्विक परिदृश्य को भी इस किताब में मज़बूती से रखा गया है। ज़ाहिर है, क्रान्ति से पहले और बाद के दौर की धड़कनों को पकड़ते हुए तमाम उम्मीदों एवं प्रभावों को लेखिका ने खूबसूरत शैली और आकर्षक भाषा में पाठकों के सामने रखा है।\n\nमध्य-पूर्वी मुल्कों के साथ-साथ दूसरे और मुल्कों की सामाजिक एवं राजनैतिक उथल-पुथल का सूक्ष्म अवलोकन इस किताब का मूल स्वरूप है ।\n\nयह किताब ईरान-इराक़ युद्ध के सभी सन्दर्भों को उठाते हुए तबाही की संस्कृति के प्रभावों को हमारे सामने रखती है। जिससे फ़क़त पड़ोसी मुल्क ही प्रभावित नहीं हुए, बल्कि पूरा विश्व इसकी चपेट में आ गया था । इसके दूरगामी प्रभाव हम सबने देखे भी हैं और किसी भी युद्ध की विभीषिका देशों को कैसे तबाह कर देती है-इसे लेखिका ने समस्त प्रमाणों एवं साक्ष्यों के साथ किताब में रखा है।\n\nयह किताब ईरान एवं मध्य-पूर्वी मुल्क एवं अन्य देशों पर न केवल एक मुस्तनद दस्तावेज़ है, बल्कि उन मुल्कों के भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक पहलुओं को हमारे सामने खुलकर रखती है।\n\nयह अपनी तरह का पहला और अनूठा काम है जो हमें उस कालखण्ड के विश्व इतिहास को समझने में मदद करता है।
नासिरा शर्मा - 1948 में इलाहाबाद (उ. प्र.) में जन्मी नासिरा शर्मा को साहित्य के संस्कार विरासत में मिले। फ़ारसी भाषा साहित्य में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से एम.ए. किया हिन्दी, उर्दू, फारसी, अंग्रेज़ी और पश्तो भाषाओं पर उनकी गहरी पकड़ है। वह ईरानी समाज और राजनीति के अतिरिक्त साहित्य, कला और संस्कृति विषयों की विशेषज्ञ हैं। इराक़, अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, सीरिया तथा भारत के राजनीतिज्ञों तथा प्रसिद्ध बुद्धिजीवियों के साथ साक्षात्कार किये जो बहुचर्चित हुए। युद्ध बन्दियों पर जर्मन व फ्रांसीसी दूरदर्शन के लिए बनी फ़िल्म में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। साथ ही साथ स्वतन्त्र पत्रकारिता में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। उपन्यास बहिश्ते-ज़हरा, शाल्मली, ठीकरे की मंगनी, ज़िन्दा मुहावरे, अक्षयवट, कुइयाँजान, ज़ीरो रोड, पारिजात, काग़ज की नाव, अजनबी जजीरा, शब्द पखेरू, दूसरी जन्नत, कहानी संग्रह शामी काग़ज़, पत्थरगली, इब्ने मरियम, संगसार, सबीना के चालीस चोर, ख़ुदा की वापसी, दूसरा ताजमहल, इन्सानी नस्ल, बुतख़ाना, रिपोर्ताज़ - जहाँ फौव्वारे लहू रोते हैं; संस्मरण यादों के गलियारे; लेख संग्रह किताब के बहाने, राष्ट्र और मुसलमान, औरत के लिए औरत, औरत की आवाज़, औरत की दुनिया; अध्ययन अफ़ग़ानिस्तान बुज़क़शी का मैदान, मरजीना का देश इराक़ अनुवाद : शाहनामा-ए-फ़िरदौसी, काइकोज आफ़ इरानियन रेवुलूशन : प्रोटेस्ट पोयट्री, बर्निंग पायर, काली छोटी मछली (समदबहुरंगी की कहानियाँ); इसके अलावा 6 खण्डों में अफ्रो-एशिया की चुनी हुई रचनाएँ, निजामी गंजवी, अत्तार, मौलाना रूमी की चुनी हुई मसनवियों और 'क़िस्सा जाम का' (खुरासान की लोककथाएँ) का अनुवाद; नाटक पत्थर गली, सबीना के चालीस चोर, दहलीज़, इब्ने मरियम, प्लेटफार्म नम्बर सात; बाल साहित्य : भूतों का मैकडोनल, दिल्लू दीमक (उपन्यास), दर्द का रिश्ता, गुल्लू, नवसाक्षरों के लिए धन्यवाद धन्यवाद, पढ़ने का हक़, गिल्लो बी, सच्ची सहेली, एक थी सुल्ताना, टी.वी. फ़िल्म व सीरियल : तड़प, माँ काली मोहिनी, आया वसंत सखी, सेमल का दरख्त (टेलीफ़िल्म), शाल्मली, दो बहनें, वापसी (सीरियल)।
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