Jatiya Manobhoomi Ki Talash

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जातीय मनोभूमि की तलाश - \n'जातीय मनोभूमि की तलाश' आलोचना-संग्रह में रचना के भीतर अलोचक की अपनी भी तलाश है। नयी पुरानी कृतियों से संवाद की आतुरता आत्म को तजकर नहीं हो सकती। इस वेदना विकलता को सिर्फ़ भावक या अभिवावक के हवाले नहीं किया जा सकता। अतीत की गरिमा के सवाल सदैव उन्हीं के मन में नहीं उठते जो पुनरुत्थानवादी हैं या गड़े मुर्दे उखाड़ने में लगे रहते हैं। बल्कि यह उन लोगों की भी निरन्तर चिन्ता है जो जातीय अस्मिता की संकट की घड़ी में सतर्क और सार्थक मनोभूमि की तलाश करना चाहते हैं। रेवती रमण का मानना है कि समीक्षक स्वभाववश अन्य के अँधेरे में ख़ास दिलचस्पी रखते रहे हैं। ज़ाहिर है इस प्रकार के कई आलेखों में उन्होंने यह काम बख़ूबी किया है। अतीत का विश्लेषण उन्होंने सिर्फ़ भावुकता के तहत नहीं किया, बल्कि उसमें सार्थकता तलाशने की कोशिश की है।\nआदान-प्रदान में आस्था के बावजूद, जब एक अनुभूति दूसरी अनुभूति से टकराती है तो आलोचना की भाषा में एक ख़ास तरह की चमक आ जाती है। यानी आलोचक के लिए बौद्धिक सवालों के साथ ही संवेदनात्मक रूप भी महत्त्व रखता है। रेवती रमण के इन आलोचनात्मक निबन्धों में भाषिक विशिष्टता की यह चमक और समृद्धि देखी जा सकती है।\nरेवती रमण के ये आलेख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होकर अक्सर चर्चित रहे हैं। इन्हें यहाँ एक साथ अपनी विविधता और चिन्ता में देखना एक वैचारिक अनुभव से गुज़रना है।

रेवती रमण - जन्म: 16 फ़रवरी, 1955, ग्राम महमादा, चौबे टोला, (पूर्वी चम्पारण) बिहार। शिक्षा: एम.ए., पीएच.डी.। प्रकाशित कृतियाँ: 'समय की रंगत' (कविता संग्रह), 'कविता और मानवीय संवेदना', 'समकालीन कविता का परिप्रेक्ष्य', 'मैथिलीशरण गुप्त', 'कविता में समकाल', 'काव्य विमर्श : निराला', 'महाकाव्य से मुक्ति', 'चिन्तामणि प्रकाश', 'प्रसाद और उनका स्कन्दगुप्त', 'भारत-दुर्दशा : कथ्य और शिल्प', 'हिन्दी आलोचना : बीसवीं शताब्दी'। सम्पादन: 'किताब'—अनियतकालीन पुस्तक समीक्षा की पत्रिका-(प्रधान सम्पादक), 'उत्तम पुरुष' (आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री की एक सौ एक प्रतिनिधि कविताएँ), 'बेड़ियों के विरुद्ध' (विश्वनाथ प्रसाद तिवारी की एक सौ एक प्रतिनिधि कविताएँ), 'सप्त स्वर' (सात नये कवियों की कविताएँ), 'ऋतुगन्ध', 'अमिधा', 'सम्भवा' आदि पत्रिकाओं में सम्पादक सहयोग।

डॉ. रेवती रमण

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