जोड़ा हारिल की रूपकथा - \nनयी पीढ़ी के प्रखर कथाकार राकेश कुमार सिंह हिन्दी कथा-लेखन में अपनी विशिष्ट पहचान बना चुके हैं। उनके विविध आयामी रचना संसार का साक्षी है प्रस्तुत कहानी संग्रह 'जोड़ा हारिल की रूपकथा'। ये कहानियाँ गाँव-क़स्बे, खेत-खलिहान तथा जंगल-पठार से लगाकर वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं जैसे अछूते क्षेत्रों और उत्तर आधुनिक समाज की विकृत होती जड़ों तक फैली हुई हैं।\nराकेश कुमार सिंह ने इन कहानियों में अपने परिवेश और समय को भिन्न-भिन्न कोणों से रेखांकित किया है। उन्होंने भारतीय जन के दुःख-दैन्य, आकांक्षाओं एवं जीवन संघर्ष को अपनी कहानियों में इस प्रामाणिकता के साथ उकेरा है कि इनसे गुज़रते हुए, बदलते समय की आहटों को साफ़-साफ़ सुना जा सकता है। भाषाई चुस्ती, शिल्पगत प्रयोग, मिट्टी के रंग गन्ध, लोकजीवन की गाढ़ी जीवन्त छवियों, गहन संवेदना एवं अभिव्यक्ति सामर्थ्य के कारण राकेश कुमार सिंह की ये कहानियाँ निःसन्देह पाठकों को सहज ही अपनी ओर आकर्षित करेंगी।
राकेश कुमार सिंह - जन्म: 20 फ़रवरी, 1960, ग्राम गुरहा, ज़िला पलामू (झारखण्ड) में। शिक्षा: स्नातकोत्तर, रसायन विज्ञान (पीएच.डी.) एवं विधि स्नातक हरप्रसाद दास जैन महाविद्यालय, आरा में शिक्षण। प्रमुख कृतियाँ: 'हाँका तथा अन्य कहानियाँ', 'ओह पलामू...!', 'जोड़ा हारिल की रूपकथा', 'महुआ मान्दल और अँधेरा' (कहानी-संग्रह); 'जहाँ खिले हैं रक्तपलाश', 'पठार पर कोहरा', 'जो इतिहास में नहीं है', 'साधो, यह मुर्दों का गाँव', 'हुल पहाड़िया', 'महाअरण्य में गिद्ध' (उपन्यास); 'केशरीगढ़ की काली रात', 'वैरागी वन के प्रेत' (किशोर उपन्यास); 'कहानियाँ ज्ञान की विज्ञान की', 'आदिपर्व', 'उलगुलान', 'अग्निपुरुष', 'अरण्य कथाएँ', 'अवशेष कथा' (बालोपयोगी पुस्तकें)। सम्मान : झारखण्ड का प्रतिष्ठित 'राधाकृष्ण सम्मान' (2004), सागर (मध्य प्रदेश) का 'दिव्य रजत अलंकार' (2002), 'कथाक्रम कहानी प्रतियोगिता' (2001-2002), 'कथाबिम्ब कहानी प्रतियोगिता' (2002), 'कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार' (2008)। 'ठहरिए आगे जंगल है' पर दूरदर्शन द्वारा इसी नाम से टेलीफ़िल्म निर्मित प्रदर्शित। कई कहानियाँ पंजाबी, उड़िया, अंग्रेज़ी तथा तेलुगु में अनूदित ।
राकेश कुमार सिंहAdd a review
Login to write a review.
Customer questions & answers