स्वतन्त्रता से पूर्व भारत में पाँच सौ से अधिक ऐसी रियासतें थीं, जिन पर राजा-महाराजा, नवाब और निज़ाम इत्यादि का राज्य था। बँटवारे से पहले अंग्रेज़ों ने इन रियासतों को अपना भविष्य स्वयं तय करने की छूट दी थी कि वह अपनी इच्छानुसार भारत या पाकिस्तान का भाग बन सकती थीं। जो रियासतें देश के बीचों-बीच स्थित थीं, उनके पास तो एक ही विकल्प था कि वह दो नये देशों में से उसी का भाग बनें जिसकी सरहदों से वह घिरी हों, पर कश्मीर और जूनागढ़ जैसी कुछ रियासतें सरहद पर होने के कारण दोनों में से किसी एक देश का हिस्सा होने के बारे में सोच-विचार कर सकती थीं। क्षेत्र के अनुसार भारत की सबसे बड़ी रियासत होने और उसके नैसर्गिक सौन्दर्य के लिए सारी दुनिया में विख्यात जम्मू-कश्मीर रियासत पर पाकिस्तान की नज़र शुरू से ही थी। वहाँ पर मुसलमानों का बहुमत होने के कारण क़ायदे-आज़म जिन्ना उसे अपनी जेब में ही रखा समझते थे, किन्तु जम्मू-कश्मीर के महाराजा हिन्दू थे और उन्हें इस बात का पूरा अनुमान था कि पाकिस्तान में विलय होने के बाद उनका अपना और उनकी हिन्दू प्रजा का क्या हश्र होगा। ठकुरसुहाती कहने वाले कुछ सलाहकारों की सलाह से तो महाराजा हरि सिंह कुछ समय के लिए अपने एक स्वतन्त्र देश होने के सपने भी देखते रहे, किन्तु माउंटबेटन की बातचीत से इस बात का स्पष्टीकरण हो गया कि दो नये देशों के बीचों-बीच स्थित होने के कारण उनके स्वतन्त्र रहने की कोई सम्भावना नहीं है।
किरण कोहली नारायण का जन्म 19 जनवरी,1943 को बारामुला कश्मीर में हुआ। अक्टूबर 1947 में हुए दंगों में परिवार का सब कुछ लुट जाने के बाद उन्हें अपना घर छोड़कर श्रीनगर में रहना पड़ा। उनके पिता स्वर्गीय प्रेमनाथ कोहली, जो कि एक सुप्रसिद्ध वनस्पति वैज्ञानिक थे, जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह जी के विश्वासपात्र एवं उनकी निजी सम्पति के संरक्षक रहे। महाराजा हरि सिंह के बम्बई निर्वासित होने के उपरान्त कोहली ने अपनी जान पर खेलकर महाराजा की सम्पत्ति का शेख अब्दुल्लाह एवं नेशनल कॉन्फ्रेंस द्वारा हथियाये जाने का जी तोड़ विरोध और सामना किया इसलिए अपने घर में हो रही तत्कालीन राजनैतिक गतिविधियों की चर्चा किरण के बचपन का अमिट भाग रही। 1965 में उनका विवाह श्री बी. नारायण आई. आर. एस. से सम्पन्न होने के कारण वह 10 वर्ष तक कलकता रहीं पर उन्हें श्रीनगर सदैव खींचता रहा और प्रत्येक वर्ष वह दो महीने पिता के साथ यहाँ रहने आती रहीं। अपने परिवार की भलीभांति देख-रेख करते हुए भी किरण की रुचि लेखन में सदैव रही और वह हिन्दी एवं अँग्रेजी दोनों भाषाओं में लिखती रहीं। उनके लेख और कहानियाँ 'सरिता', 'वामा', 'गृहशोभा' जैसी हिन्दी और 'फेमिना', 'वुमन्स इरा' इत्यादि में विभिन्न मुद्दों को लेकर छपते रहे, पाँच वर्ष तक उनका बागबानी का स्तम्भ 'ट्रिब्यून' में छपता रहा। 1990 में हो रहे हिन्दुओं के निष्कासन और अपने सगे-सम्बन्धियों के मारे जाने के कारण किरण कई वर्ष व्यथित रहीं और 2015 में उनकी अंग्रेजी पुस्तक कश्मीर द लॉस ऑफ इनोसेंस छपी जिसे पत्र-पत्रिकाओं में लिखी समीक्षाओं द्वारा काफ़ी सराहना मिली।
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