किर्चियाँ - 'ज्ञानपीठ पुरस्कार' से सम्मानित आशापूर्णा देवी आधुनिक बांग्ला की अग्रणी उपन्यासकार रही हैं। कहानी-लेखन में भी वह उतनी ही सिद्धहस्त थीं। उनकी आरम्भिक कहानियाँ किशोरवय के पाठकों के लिए थीं और द्वितीय महायुद्ध के समय लिखी गयी थीं। उनकी सभी छोटी-बड़ी कहानियों में जीवन के सामान्य एवं विशिष्ट क्षणों की ज्ञात-अज्ञात पीड़ाएँ मुखरित हुई हैं। सच पूछिए तो उन्होंने इनको वाणी से कहीं अधिक दृष्टि दी है। इसलिए उनकी कहानियाँ पात्र, संवाद या घटना-बहुल न होती हुई भी जीवन की किसी अनकही व्याख्या को व्यंजित करती हैं।
आशापूर्णा देवी - बंकिमचन्द्र, रवीन्द्रनाथ और शरतचन्द्र के बाद बांग्ला साहित्य लोक में आशापूर्णा देवी का ही एक ऐसा सुपरिचित नाम है, जिनकी हर कृति पिछले पचास सालों से बंगाल और उसके बाहर भी एक नयी अपेक्षा के साथ पढ़ी जाती रही है। कोलकाता में 8 जनवरी, 1909 को जनमी आशापूर्णा देवी ने किशोरावस्था से ही लिखना शुरू कर दिया था। मेधा के प्रस्फुटन में आयु कब बाधक हुई। स्कूल कॉलेज जाने की नौबत नहीं आयी, किन्तु जीवन की पोथी उन्होंने बहुत ध्यान से पढ़ी जिसके परिणामस्वरूप उन्होंने ऐसे महत्त्वपूर्ण साहित्य का सृजन किया जो गुण और परिमाण दोनों ही दृष्टियों से अतुलनीय है। 142 उपन्यासों, 24 कथा-संकलनों और 25 बाल पुस्तिकाओं ने बांग्ला के अग्रणी साहित्यकारों में उनका नाम सुरक्षित कर दिया है। ज्ञानपीठ पुरस्कार, कलकत्ता विश्वविद्यालय के 'भुवन मोहिनी स्मृति पदक' और 'रवीन्द्र पुरस्कार’ से सम्मानित तथा भारत सरकार द्वारा 'पद्मश्री' से विभूषित आशापूर्णा जी अपनी एक सौ सत्तर से भी अधिक औपन्यासिक एवं कथापरक कृतियों द्वारा सर्वभारतीय स्वरूप को निरन्तर परिष्कृत एवं गौरवान्वित करती हुई आजीवन संलग्न रहीं। 13 जुलाई, 1995 को कोलकाता में देहावसान हुआ। भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित उनकी रचनाएँ हैं : सुवर्णलता, बकुलकथा, प्रारब्ध, लीला चिरन्तन, दृश्य से दृश्यान्तर और न जाने कहाँ कहाँ (उपन्यास); किर्चियाँ एवं ये जीवन है (कहानी-संग्रह)।
आशापूर्णा देवी अनुवाद डॉ. रणजीत साहाAdd a review
Login to write a review.
Customer questions & answers