यह उपन्यास प्राचीन मगध साम्राज्य (आधुनिक बिहार इत्यादि क्षेत्र) के आसपास घटित हो रहा है। राजगृही, मगध, वैशाली जैसी नगरियों की जहद्दोजद हमसे छुपी हुई नहीं है। इनके राजा सामान्य लोगों जैसा बर्ताव भी करते हैं, तो कभी पुण्यात्मा- जैसा बर्ताव करते हैं और कभी राजनीतिज्ञों जैसा छल-छद्म का बर्ताव भी करते हैं। राग हो, वहाँ द्वेष आ ही जाता है और जहाँ द्वेष होता है, वहाँ राग भी प्रवेश पा ही जाता है। राग-द्वेष नहीं होतें तो क्या मनुष्य दुःखी हो सकता था ? इस कथा में राजगृही के आसपास का भूमण्डल है। भगवान् महावीर के अस्तित्व- करीबन ढ़ाई हजार वर्ष पहले का - कथा का काल है। उस युग की मर्यादाओं और संस्कृति की महक इसमें है तो हिंसा और दुराचार की दुर्गन्ध भी इसमें है। किन्तु, इसकी दृष्टि अग्रयायी है। इस उपन्यास में इस अग्रयायी दृष्टि का चित्र उकेरने का प्रयास है। यों देखें तो कोई एक मुख्य पात्र नहीं है, तो दूसरी दृष्टि से इसके मुख्य पात्न बिम्बिसार श्रेणिक, अभयकुमार आदि हैं। भगवान् महावीर की वाणी को जिसने बखूबी प्राप्त किया, वैसा मगधसम्राट् श्रेणिक अपने आखिरी समय में कारागृह में रहकर अपने अतीत को मानो साक्षात् देख रहा है। इसकी दृष्टि में अब राग-द्वेष नहीं रह गया, अपितु क्षमा-भाव प्रबल बना हुआ है। महावीर परमात्मा की प्रेरणा का इतना फल तो उसे प्राप्त होना ही था न ! परन्तु इतने मान से इस उपन्यास को जैन उपन्यास कहना उचित कैसे कहा जाएगा ? वास्तविकता यह है कि यह कथा (उपन्यास) मानव- सहज संवेदना, महत्त्वाकांक्षा और संबंधों के ताने बाने की कथा है।
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Acharya Vijay Rajsekhar SurishwarAdd a review
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