महामति प्राणनाथ व्यक्ति के तौर पर एक लोकसाधक ही थे इसलिए उन्होंने सामाजिक, सामासिक, साम्प्रदायिक उत्कर्ष के साथ समष्टिगत सौमनस्य को जागनी पर्व या अभियान के साथ जोड़ा। उत्तर मध्यकाल में पश्चिमोत्तर भारत के जनमानस को सत्ता पक्ष ने बुरी तरह झिंझोड़ रखा था। संशय और अविश्वास के उस संक्रमणकालीन दौर में, एक कट्टर और निरंकुश राजसत्ता की काली छाया में - महामति ने लोगों को एक भयमुक्त समाज और अपनत्वभरा संसार देते हुए आश्वस्त किया था । यह एक महान वैचारिक और व्यावहारिक सामाजिक प्रतिश्रुति थी । इस अभियान में अपना कुछ भी गँवाना या छोड़ना नहीं था बल्कि जो सबका है, सबमें है-उसे सबके साथ पाना और बाँटते हुए, समृद्ध होते जाना था ।\n\nमहामति को अपने इस ऐतिहासिक, आध्यात्मिक और सामाजिक अभियान में सीधे मुगलिया सल्तनत के सबसे अनुदार और इस्लाम के कट्टर शरापसन्द बादशाह औरंगज़ेब से टकराना पड़ा। लगभग चालीस वर्षों तक निरन्तर वे व्यक्ति और समाज, शासक और समुदाय और फिर 'सुन्दर साथ' के साथ पूरी जाति को झिंझोड़ते-झकझोरते रहे। लेकिन इस विरोध में विध्वंस का स्वर नहीं था, वहाँ देश, धर्मादर्श तथा आत्मा-परमात्मा के शाश्वत सम्बन्ध के साथ, सामूहिक जागनी एवं आध्यात्मिक स्तर पर, सार्वजनीन उत्थान का मुखर संकल्प था ।\n\nमहामति ने दो महान् धर्म और संस्कृतियों-हामी और सामी (हेमेटिक और सेमेटिक) के एकीकरण या समायोजन की सम्भावना को इसी आलोक में देखा, परखा और रखा। उनका विश्वास था कि सम्पूर्ण मानवता के कल्याणार्थ इनका समायोजन होगा और दोनों की विराट् धर्म-सांस्कृतिक उपलब्धियों और अवधारणाओं से आस्था और विश्वासविहीन विश्व की मरुभूमि को परस्पर प्रेम एवं सद्भाव से सींचा जा सकेगा।\n\nमहामति प्राणनाथ का आध्यात्मिक अभियान सामाजिक नवोत्थान के साथ एक ऐसे विश्व समाज और विश्व धर्म के सन्देश से जुड़ा था- जिसकी आकांक्षा सदियों से की जा रही थी। इसलिए उनके प्रशंसकों, अनुयायियों, 'सुन्दर साथ' को और यहाँ तक कि विधर्मी एवं विरोधियों को भी महामति प्राणनाथ-जैसे असाधारण मनीषी के सर्जक व्यक्तित्व में वे सारी विशिष्टताएँ एक साथ दीख पड़ीं। उन्हें परमात्मा के सच्चे प्रतिनिधि एवं प्रवक्ता के रूप में 'प्राणनाथ' और युगान्तरकारी 'निष्कलंक बुधावतार' तक के दर्शन हो गये। इतने सारे दायित्वों और भूमिकाओं का निर्वाह जिस कौशल से और बिना किसी चमत्कार के महामति के संकल्प और संघर्ष द्वारा सम्पन्न होता चला गया—वह भारतीय धर्म साधना के इतिहास एवं परिदृश्य में सचमुच अद्भुत और अनूठा था। इसीलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि उनका सहज किन्तु प्रभावी व्यक्तित्व उनके प्रशंसकों, पाठकों, अनुगतों, समर्थकों और सबसे बढ़कर उनके अनुयायियों को लोकोत्तर प्रतीत होता है।
हिन्दी के सुपरिचित विद्वान रणजीत साहा (जन्म 21 जुलाई, 1946), हिन्दी में एम.ए. (प्रथम श्रेणी), विश्वभारती, शान्तिनिकेतन से पीएच.डी. तथा तुलनात्मक साहित्य एवं ललित कला अधिकाय में भी उपाधियाँ प्राप्त हैं। भागलपुर, शान्तिनिकेतन एवं दिल्ली विश्वविद्यालयों में अध्ययन तथा शोध-सम्बन्धी परियोजनाओं से जुड़े रहने के उपरान्त आप दो दशकों तक साहित्य अकादेमी, नयी दिल्ली के उपसचिव पद पर कार्यरत रहे। शोध एवं अनुवाद के क्षेत्र में अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य कर चुके रणजीत साहा की लगभग तीन दर्जन पुस्तकें एवं कई शोधपूर्ण लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं ।आपके द्वारा लिखित कृतियों में 'युगसन्धि के प्रतिमान', 'सहज सिद्ध : साधना एवं सर्जना', 'अमृत राय', ‘किरंतन', 'सिद्ध साहित्य : साधन विमर्श' तथा ‘चर्यागीति विमर्श' (समालोचना), 'रवीन्द्र मनीषा' एवं 'रवीन्द्रनाथ की कला सृष्टि' के अलावा 'गीतांजलि' का अनुवाद भी सम्मिलित है। आपने बाङ्ला के कई शीर्षस्थ लेखकों के अलावा अंग्रेज़ी एवं गुजराती से भी कई कृतियों का अनुवाद किया है। समकालीन रोमानियाई कविता का विशिष्ट संकलन 'सच लेता है आकार' (साहित्य अकादेमी द्वारा प्रकाशित) कविता के पाठकों द्वारा काफ़ी सराहा गया है। वर्ष 2007 में रोमान कल्चरल इंस्टीट्यूट, रोमानिया से विज़िटिंग फेलोशिप प्राप्त रणजीत साहा को रोमानिया दूतावास ने साहित्य के क्षेत्र में 'श्रेष्ठ प्रोत्साहक' (बेस्ट प्रोमोटर) का सम्मान प्रदान किया है।भारतीय भाषा केन्द्र, जवाहरलाल नेहरू वि.वि. से सेवामुक्त रणजीत साहा की मौलिक लेखन के अलावा, अनुवाद के क्षेत्र में विशिष्ट पहचान है। ललित कला, विशेषकर कला समीक्षा में आपकी गहरी रुचि है। रूस, अमरीका, इंग्लैंड, जापान, बुल्गारिया, मॉरीशस एवं नेपाल की विभिन्न साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में भारत का प्रतिनिधित्व कर चुके रणजीत साहा भारतीय भाषा परिषद्, कोलकाता के सेतुबन्ध पुरस्कार, अन्तरराष्ट्रीय इंडो- रसियन लिटरेरी सम्मान, दिनकर रत्न सम्मान, उ.प्र. हिन्दी-उर्दू कमिटी अवार्ड, हिन्दी साहित्य सेवी सम्मान (म.गां. अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी वि.वि.) तथा काकासाहेब कालेलकर अलंकरण से सम्मानित और कई साहित्यिक संस्थाओं से समादृत हैं । ܀܀܀ महामति प्राणनाथ (1618-1694 ई.) जन्म का नाम मेहराज ठाकुर । पिता श्री केशव ठाकुर और माता धनबाई की सन्तान । सुदूर गुजरात के जामनगर में पैदा हुए मेहराज का बारह वर्ष की उम्र में ही सद्गुरु देवचन्द्र के आध्यात्मिक ज्ञान के प्रति लगाव तथा उनसे तारतम मन्त्र की दीक्षा प्राप्त । देवचन्द्र जी के धामगमन के उपरान्त प्रणामी धर्म की बागडोर सँभालते हुए भारत तथा अरब देशों का भ्रमण । अपने अनुयायियों एवं सुन्दर साथ के बीच जागनी अभियान और तारतम का प्रसार । विभिन्न सम्प्रदायों, अखाड़ों, संकीर्ण गुटों और मतवाद के भँवर से निकालकर पूरी मानवता को बृहत्तर मानव धर्म और एकेश्वरवाद का सन्देश । व्यक्तिगत मोक्ष का मोह या सिद्धि की आसक्ति त्यागकर सामूहिक जागनी पर सर्वाधिक जोर । अपने वाणी-संग्रह तारतम बानी या कुलजम स्वरूप में वेद और कतेब पक्ष के सन्देशों एवं अवधारणाओं को व्यापक अनुभव की कसौटी पर परखकर और आतम साखी से पुष्ट कर पूरी मानवता के लिए अखिल विश्व का आह्वान और एक नये सूर्योदय की मंगलपूर्ण भविष्यवाणी ।महामति के सक्रिय चिन्तन का मूल स्वर है, आत्मा में परमात्मा के मिलन का आनन्द । इस चिन्मय मिलन उत्सव को महामति ने अपने वाङ्मय में शताधिक बार दोहराया है। इस परम आयोजन की आकांक्षा उनके जीवन, चिन्तन एवं दर्शन में विभिन्न अवसरों एवं प्रसंगों पर प्रकट वाणियों द्वारा पुष्ट और समृद्ध हुई । तारतम बानी में संकलित श्रीरास (इंजील), कलश (जम्बूर), प्रकाश (तोरेत), सनंध (कुरान), किरंतन, खुलासा, खिलवत, सागर, सिन्धी वाणी से लेकर मारफत सागर और कयामतनामा (बड़ा और छोटा) तक, उनके अन्तर में उतरी यह अमृत बानी समस्त मानव समुदाय के लिए नये सन्देश के साथ व्यंजित होती गयी-कभी किसी भूले-बिसरे आख्यान में ढलकर, कभी नये रूपकों से पुष्ट होकर और कभी प्राचीन मिथकों से समृद्ध होकर ।महामति प्राणनाथ ने उत्तर मध्यकाल में प्रचलित भारतीय धर्मसाधना और अध्यात्म दृष्टि के साथ उसकी समन्वयी भावधारा को गतिशील ढंग से प्रभावित और आस्थावान समाज को अनुप्राणित किया। लक्ष्य के प्रति समर्पित और जुझारू महामति के व्यक्तित्व में, उनके ओजपूर्ण स्वर और भव्य स्वरूप में, उनके अनुयायियों और सुन्दरसाथ ने परब्रह्म परमात्मा की दिव्य ज्योति का आभास पाया था । ऐतिहासिक तौर पर जामनगर (गुजरात) में एक दीवान के घर उत्पन्न मेहराज ठाकुर को समय-समय पर और विभिन्न स्थानों पर अवतरित शक्तियों के समुच्चय के रूप में देखा गया। इस कालजयी मनीषा को 'महामति प्राणनाथ' की संज्ञा और ‘विजयाभिनन्द निष्कलंक बुध' की उपाधि भी मिली। लोक चित्त के अनुरूप ढले उनके व्यक्तित्व और कृतित्व में हम विभिन्न आस्थाओं एवं आम्नायों के साथ, इन सबमें निहित परम चिन्मय सत्ता का आभास पा सकते हैं।
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