प्रस्तुत पुस्तक का पहला संस्करण सन् 1936 में प्रकाशित हुआ था, तब से अब तक के वर्षों में इसके अनेक संस्करण निकल चुके हैं। यह इस बात का द्योतक है कि पुस्तक पाठकों को बहुत पसंद आई है।\n\nवास्तव में यह सामान्य आत्म-कथा नहीं है, एक असामान्य कृति है। जवाहरलालजी का सम्पूर्ण जीवन समाज, राष्ट्र और विश्व के साथ बड़े घनिष्ठ रूप में जुड़ा था। यद्यपि यह पुस्तक जेल की चहारदीवारी के भीतर लिखी गई थी, तथापि इसमें लेखक की दृष्टि की व्यापकता और हृदय की विशालता दिखाई देती है। उन्होंने इसमें अपने परिवार की, अपने बचपन की और अपने शिक्षा-काल की कहानी अत्यन्त रोचक ढंग से कही है, लेकिन आगे चलकर भारत के मुक्ति-संग्राम की अनेक महत्त्वपूर्ण घटनाएं भी इसमें सम्मिलित कर दी हैं।\n\nजवाहरलालजी भारत के एक महान नेता ही नहीं थे, उच्चकोटि के लेखक भी थे। उनकी लेखन शैली बड़ी सरस और रोचक थी। यही कारण है कि इस पुस्तक को पढ़ते-पढ़ते पाठक कहीं भी ऊबता नहीं है।
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