मार्ग मादरज़ाद-पीयूष दईया की आत्मा के दायरों में फिसलते मनुष्य की यात्रा का मार्ग है। यह मार्ग निर्विघ्न नहीं है क्योंकि इसमें ‘श्मशानी शऊर’ की ‘वर्णमाला’ सीखे लोगों की साँसें निर्बिम्ब’ हैं। इस निर्बिम्ब की कथा, कहानी, उपन्यास आदि आख्यानात्मक विधाओं में भी दर्ज की जाये, तो भी उसका आस्वाद यथा-स्थितिवादी आस्वाद में व्यतिरेक उत्पन्न करता है। पर जब निर्बिम्ब की कथा कविता जैसी विधा में हो, तो आस्वादक की भूमिका बढ़ जाती है। यह काव्य-कथा है, पर यह कथा ‘बिना जड़ों के खिला’ है अर्थात् कथा बिना आख्यान के है। यहाँ कविता का सम्पूरक नहीं, न ही कथा कविता को सम्भव बनाती है। यहाँ कथा कविता के बीच के छूटे स्पेस को भरने का प्रस्थान बिन्दु निर्मित करती है। इस निर्मिति के बिना ये कविताएँ सम्भव नहीं। इन कविताओं की संवेदनात्मक संरचना का स्पर्श करुणा और मानवता की यात्रा की ओर प्रवृत्त करता है। इस प्रक्रिया में हिंसा नहीं, सात्त्विक राग है। यह राग ही पीयूष दईया की कविता को सम्भव बनाता है। इन कविताओं की भाषा इस अर्थ में विशिष्ट है कि यह सीधे-सपाट गद्य की भाषा नहीं। एक शब्द ही वाक्य है। शब्द जब वाक्य की तरह प्रयक्त हों. तब शब्द अपनी आदिम शक्ति का सहारा लेते हैं, बिम्बात्मकता का। परन्तु, पीयूष दईया एक पदी वाक्यों में बिम्बात्मकता से ज्यादा भावात्मकता या भाववाचकता का सहारा लेते हैं-उनकी भाषा में संगीत-सा रचाव है।
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