इस अप्रतिम प्रेम कथा में चित्रकार रघु विवाहिता और अपूर्व सुन्दरी गौरी के प्रेम में पड़कर अपने जीवन को उलझा लेता है। पुस्तक के पहले हिस्से में रघु प्रेम के आरम्भ में ही प्रेम से छुटकारा पा लेना चाहता है किन्तु वह गौरी के प्रणय को अस्वीकार नहीं कर पाता। इस कशमकश में गौरी ही हारकर रघु को छोड़कर चली जाती है। दूसरे हिस्से में पराजित और लज्जित रघु संन्यासियों जैसे भटकने के लिए निकल पड़ता है। भारतीय दर्शन से जुड़ी यह कथा इक्कीसवीं सदी के भारत से जुड़कर नये आयाम खोलती है तथा पाठक को बहुत कुछ विचारने पर विवश करती है।
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