मीर की कविता और भारतीय सौन्दर्यबोध - \n'मीर की कविता और भारतीय सौन्दर्यबोध' उर्दू के मशहूर आलोचक शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी की बेमिसाल किताब 'शेर-ए-शोरअंगेज़' का हिन्दी रूपान्तरण है। इस किताब में लेखक ने मीर की कविता के बहाने समूची उर्दू कविता को दो क्लासिक भाषाओं संस्कृत और फ़ारसी के काव्यचिन्तन की रोशनी में देखा है। इस प्रक्रिया में फ़ारूक़ी क़दम-क़दम पर आतिश; नासिख; अबरू; सौदा; कायम; हातिम; शालिय; मोमिन और दाग़ सहित तमाम दूसरे उर्दू शायरों से मीर का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए आगे बढ़ते हैं। इस यात्रा में साथ चलते पाठक की अनुभूति-क्षमता जैसे-जैसे विकसित होती है; उसके हाथ मानो कोई दबा हुआ ख़ज़ाना लगता है। यही नहीं, पश्चिमी काव्यचिन्तन से भी फ़ारूक़ी भरपूर लाभ उठाते हैं। राष्ट्रों और महाद्वीपों के दायरों को पार कर उनकी वैश्विक दृष्टि मानो समूची मानवता द्वारा इस दिशा में अब तक हासिल की गयी समझ को हम तक पहुँचाने के लिए इस किताब को माध्यम बनाती है।\nमीर के बारे में आमतौर पर ये ख़याल किया जाता है कि रोज़मर्रा की आमफ़हम ज़ुबान के शायर हैं। फ़ारूक़ी इस मिथक को खण्डित करते हुए यह दिखाते हैं कि दरअसल मीर ने अप्रचलित शब्दों, मुहावरों और अरबी-फ़ारसी तरक़ीबों का इस्तेमाल और किसी भी शायर से ज़्यादा किया है। उनकी महानता इस बात में निहित है कि आमफ़हम भाषा के बीच इनका प्रयोग उन्होंने कुछ इस अन्दाज़ से किया है कि इनका अर्थ अपने सन्दर्भ के सहारे पाठक पर खुलने लगता है और ये अपरिचित नहीं लगते। अपने समय में प्रचलित जनभाषा पर, जिसे फ़ारूक़ी ने प्राकृत कहकर सम्बोधित किया है; चूँकि मीर का असाधारण अधिकार था इसलिए उनका निरंकुश ढंग से प्रयोग करके भी मनचाहा अर्थ निकाल लेने की उनकी क्षमता कबीर और शेक्सपियर जैसी ही थी। इस विवेचन में भाषा की बारीकियाँ तह-दर-तह खुलती हैं और हम हिन्दी-उर्दू की अपनी खोयी हुई साझा ज़मीन को फिर से हासिल करते हुए से लगते हैं। इसके साथ-साथ मीर की कविता का जो चयन विश्लेषण के साथ फ़ारूक़ी ने यहाँ प्रस्तुत किया है उसे बड़ी आसानी से दुनिया के हर दौर की बड़ी से बड़ी काव्योपलब्धि और आलोचकीय कारनामे के समतुल्य ठहराया जा सकता है।\nइश्क़ के मुहावरे में कही गयी बातों की इन्सानी तहज़ीब के दायरे में क्या हैसियत है; इस सवाल का जवाब हमें इस किताब में मिलता है। मसलन, आशिक़ और माशूक़ का रिश्ता किस क़दर मानवीय है : शरीर की इसमें क्या भूमिका है; इसमें कौन कितनी छूट ले सकता है और इसके बावजूद माशूक़ का मर्तबा किसी भी हालत में कम नहीं होता वरना शायरी अपने स्तर से गिर जाती है। इश्क़ के इस कारोबार में इसके अलावा प्रतिद्वन्द्वी और सन्देशवाहक जैसे पारम्परिक चरित्रों के साथ गली-मुहल्ले के निठल्ले मनचलों से लेकर तमाम कामधन्धों में लगे ढेरों लोगों की भर-पूरी दुनिया आबाद है, जिनकी धड़कनों का इतिहास मीर की शायरी में सुरक्षित है। फ़ारूक़ी एक जगह इसकी तुलना चार्ल्स डिकेंस के उपन्यासों से करते हैं। इससे गुज़रते हुए हमारे सामने सत्रहवीं-अठारहवीं सदी के हिन्दुस्तान के जनजीवन और मूल्यबोध का अनूठा दृश्य खुलता है। इस तरह इस किताब को पढ़ते हुए बरबस ही हम अपने मौजूदा नज़रिये की तंगी और अपनी अल्पज्ञता पर चकित होते हैं और इसके प्रति सचेत करने के लिए लेखक के शुक्रगुज़ार भी।—कृष्ण मोहन
शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी - शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी का जन्म 30 सितम्बर, 1935 को हुआ। आपने 1955 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए. किया। शोध; आलोचना; इतिहास; कविता; कहानी; उपन्यास; कोशनिर्माण; दास्तान; छन्दशास्त्र जैसी साहित्य की तमाम विधाओं में आपने तवारीख़ी कारनामे अंजाम दिये हैं। उर्दू जगत में बड़ा आधुनिक मोड़ लानेवाली मासिक पत्रिका 'शबाख़ून' का आपने चार दशक तक सम्पादन-प्रकाशन किया। आधुनिक युग के एक बड़े साहित्यचिन्तक के रूप में तो आपकी प्रतिष्ठा निर्विवाद रही है लेकिन 2006 में सामने आया आपका उपन्यास 'कई चाँद थे सरे आसमाँ' उर्दू के साथ-साथ हिन्दी के लिए भी एक परिघटना साबित हुआ। इस पुस्तक के प्रभाव की तुलना मीर तक़ी मीर पर 1992 से 94 के बीच चार खण्डों में प्रकाशित आपकी मशहूर कृति 'शेर-ए-शोरअंगेज़ से ही की जा सकती है। इस किताब के लिए लेखक को 1996 में उपमहाद्वीप के सबसे प्रतिष्ठित साहित्यिक सम्मानों में से एक सरस्वती सम्मान प्राप्त हुआ था। 'शेर', 'ग़ैर शेर और नम्र', 'उर्दू का इब्तिदाई ज़माना' तथा 'सवार और दूसरे अफ़साने' आपकी अन्य ख्यातिलब्ध पुस्तकें हैं। भारत और पाकिस्तान की सरकारों ने 'पद्मश्री' और 'निशाने इम्तियाज़' जैसे खिताबों से नवाज़ कर आपके प्रति आभार जताया है। फ़िलहाल आप इलाहाबाद में रहते हुए कोशनिर्माण और दास्तान के इलाक़े में अपनी बृहद् योजनाओं को कार्यरूप देने में व्यस्त हैं। कृष्णमोहन (सम्पादक) विगत दो दशक से आलोचना; अनुवाद; और सम्पादन के क्षेत्र में सक्रिय प्रमुख कृतियाँ–'मुक्तिबोध: स्वप्न और संघर्ष', 'आधुनिकता और उपनिवेश', 'कहानी समय' और 'आईनाख़ाना'। सुधीर कक्कड़ के उपन्यास 'द एसेटिक ऑफ़ डिज़ायर' का अनुवाद ' कामयोगी' के नाम से किया जिसे 2002 का सहित्य अकादेमी सम्मान भी प्राप्त हुआ। डेल कार्नेगी की पुस्तक का अनुवाद 'अब्राहम लिंकन: एक अनजानी शख़्सियत' नाम से शीघ्र प्रकाश्य। सम्पादन में इससे पहले शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी की एक अन्य किताब 'उर्दू का इब्तिदाई ज़माना' के अनुवाद का सम्पादन। यह किताब हिन्दी में 'उर्दू का आरम्भिक युग' नाम से प्रकाशित। इसके अलावा आलोचना की अनियतकालिक पत्रिका 'परख' के कुल चार अंकों का सम्पादन व प्रकाशन। फ़िलहाल बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में अध्यापन।
शमसुर रहमानAdd a review
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