भारतीय पत्रकारिता का इतिहास अथक संघर्षों और संकटों से जूझने की लंबी कहानी है। इसे अनेकानेक स्वनामधन्य पत्रकारों और संपादकों ने अपने खून-पसीने से सींचा है। आज पत्रकारिता का जो भव्य भवन दृष्टिगोचर होता है, जो कलश चमकते हैं, उसकी नींव के पत्थर और प्राण-प्रतिष्ठा के शिल्पी वही पुरखे हैं, जिन्होंने पत्रकारिता का विशाल फलक रचा। श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी लगभग छह दशकों तक हिंदी साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय रहे। उनकी दृष्टि में साहित्य और पत्रकारिता में कोई बड़ा भेद नहीं था। हिंदी की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘सरस्वती’ के संपादक पद को सुशोभित करने का गौरव बख्शीजी को तीन बार मिला। करीब दो वर्षों तक उन्होंने रायपुर से प्रकाशित दैनिक ‘महाकोशल’ के रविवारीय परिशिष्ट का संपादन किया। हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता में बख्शीजी ने 1920 के आस-पास जिस भाषा और शैली को अपनाया था, वह आज भी जीवंत है। अखबारों के बारे में उनकी बेबाक राय थी—“जिन पत्रों का जनता पर कोई प्रभाव नहीं है, उनके समाचारों का भी कोई मूल्य नहीं होता।” सरलता और सादगी की प्रतिमूर्ति, बहुविज्ञ बख्शीजी के संपादकीय कौशल से रचनाओं का जैसा परिष्कृत और परिमार्जित स्वरूप सामने आता था, वह रचनाकारों के लिए मार्गदर्शक होता था। नव रचनाकार, लेखक, प्रशिक्षु पत्रकार ही नहीं आम पाठक के लिए भी समान रूप से उपयोगी एवं प्रेरणादायी पुस्तक।
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Ramesh NayyarAdd a review
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