पाकिस्तान में गाँधी - रंगमंच पर जब किसी नाटक का मंचन होता है तब यह उस मंचन की अनिवार्य शर्त होती है कि दर्शक कुछ घटनाओं की पूर्व पीठिका से परिचित हों। वे यह मान कर चलें कि जो मंचित किया जायेगा, कुछ घटनाएँ उसके पहले हो चुकी होंगी और कुछ घटनाएँ उसके बाद होंगी। असगर वजाहत का यह नाटक पाकिस्तान में गाँधी ऐसे ही कुछ ऐतिहासिक तथ्यों के पूर्व ज्ञान की माँग करता है। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि गाँधी जी विभाजन के तत्काल बाद, बगैर वीज़ा - पासपोर्ट के पाकिस्तान जाना चाहते थे और इस बारे में उन्होंने जिन्ना से पत्र व्यवहार किया था। जिन्ना ने कुछ शर्तों के साथ इस पर सहमति भी जताई थी। यह भी एक ऐतिहासिक सत्य है कि सीमा के उस पार पाकिस्तान में गाँधी जी का आदर करने वाले, उनसे प्यार करने वाले और उनकी बातों को गम्भीरता से सुनने वाले लोग बहुतायत में थे । इस योजना के फलीभूत होने से पहले दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से गाँधी जी की हत्या हो गयी और यह यात्रा नहीं हो पायी । यह नाटक उन परिस्थितियों की कल्पना करता है जब गाँधी जी पाकिस्तान पहुँच जाते हैं। इस दौरान क्या होता है, उदारवादी और कट्टरपन्थी गाँधी जी की इस यात्रा को कैसे ग्रहण करते हैं और इस पर कैसी राजनीतिक-सामाजिक और भावनात्मक हलचलें होती हैं यह तो इस नाटक का कथानक है और इस स्थान पर इसका रहस्योद्घाटन करना किसी भी कारण से वरेण्य नहीं है। कोई ऐतिहासिक घटना होने को थी और नहीं हुई, अगर होती तो कैसी होती इसे असगर वजाहत 'स्पेक्युलेटिव फिक्शन' कहते हैं। आगे वह यह भी प्रस्तावित करते हैं कि अगर इस तरह के फिक्शन और इतिहास को मिलाकर कोई रचना तैयार की जाये तो उसे इतिगल्प कहा जा सकता है। तो इस इतिगल्प में अपने-अपने भावनात्मक राजनैतिक और पारिवारिक कारणों से कुछ लोग गाँधी की यात्रा के साथ ही जुड़ जाते हैं और कुछ लोग हैं जो वहाँ गाँधी से मिलते हैं। इस काल्पनिक घटनाक्रम के बीच दर्शक अथवा पाठक अगर लगातार इस बारे में सोचता रहे कि राजनैतिक सीमाएँ, असहमतियाँ और धर्म क्या ऐसी मज़बूत दीवारें हैं कि वे मनुष्य को मनुष्य से अलग कर देती हैं? और अगर ये अलगाववादी शक्तियाँ सफल हो जाती हैं तो ऐसा अलगाव सही है या नहीं उसे प्रश्नांकित किया जाना चाहिए या नहीं? और सबसे बढ़कर यह प्रश्न कि गाँधी जी ऐसी यात्रा से क्या हासिल करना चाहते थे? अगर इनमें से कुछ सवाल भी प्रेक्षक के मन में उठते हैं तो इसे नाटक की सफलता के रूप में देखा जा सकता है।
"असग़र वजाहत हिन्दी के प्रतिष्ठित लेखक असगर वजाहत के अब तक सात उपन्यास, छह नाटक, पाँच कथा संग्रह, एक नुक्कड़ नाटक संग्रह और एक आलोचनात्मक पुस्तक प्रकाशित हैं। उपन्यासों तथा नाटकों के अतिरिक्त उन्होंने महत्त्वपूर्ण यात्रा संस्मरण भी लिखे हैं। ईरान और अज़रबाइजान की यात्रा पर आधारित उनका यात्रा संस्मरण चलते तो अच्छा था चर्चा में रहा है। वर्ष 2007 में हिन्दी पत्रिका आउटलुक के एक सर्वेक्षण के अनुसार उन्हें हिन्दी के दस श्रेष्ठ लेखकों में शुमार किया गया था। उनकी कृतियों के अनुवाद अंग्रेज़ी, फ्रेंच, जर्मन, इतालवी, रूसी, हंगेरियन, फ़ारसी आदि भाषाओं में हो चुके हैं। उन्होंने वी. वी. हिन्दी डॉट कॉम तथा 'हंस' जैसी पत्रिकाओं के लिए अतिथि सम्पादन किया है। उनके लेख हिन्दी के महत्त्वपूर्ण समाचारपत्रों में प्रकाशित होते रहते हैं। श्रेष्ठ लेखन के अतिरिक्त उनकी गहरी रुचि चित्रकला तथा फ़ोटोग्राफ़ी में भी है। उनकी दो एकल प्रदर्शनियाँ वुदापैश्त, हंगरी और दिल्ली में हो चुकी हैं। उनके चित्र पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं। असगर वजाहत लम्बे समय से फ़िल्मों के लिए पटकथाएँ लिख रहे हैं। उन्होंने 1976 में मुज़फ्फर अली की फ़िल्म 'गमन', उसके बाद 'आगमन' तथा अन्य फ़िल्में लिखी हैं। आजकल वे विख्यात निर्देशक राजकुमार संतोषी के लिए पटकथा लिख रहे हैं जो उनके नाटक जिस लाहौर नइ देख्या ओ जम्याइ नइ पर आधारित है। वे पटकथा लेखन कार्यशालाएँ भी आयोजित करते रहते हैं। अन्य सम्मानों के अतिरिक्त असगर वजाहत को उनके उपन्यास कैसी आगी लगाई के लिए कथा यू.के. द्वारा हाउस ऑफ़ लाईस लन्दन में सम्मानित किया जा चुका है। असगर वजाहत, जामिया मिल्लिया इस्लामिया (केन्द्रीय विश्वविद्यालय) नयी दिल्ली के हिन्दी विभाग में प्रोफ़ेसर रह चुके हैं। इसके अतिरिक्त वे बुदापश्त, हंगरी में विज़िटिंग प्रोफ़ेसर रह चुके हैं। उन्होंने ए. जे. मास कम्युनिकेशन रिसर्च सेंटर के कार्यकारी निदेशक के रूप में भी काम किया है।"
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