विजया सिंह का कविता-संग्रह पार्क में हाथी इस बात का साक्ष्य प्रस्तुत करता है कि एक खास कविता ऐसी भी है जो केवल आम जीवन से जुड़े जीवों-छिपकली, तितली, चींटी, खरगोश, कुछ मनुष्य भी और हाँ, पार्क में हाथी और अन्य कुछ निर्जीव पदार्थ-लाल मिर्च, मोटा नमक, रसोई के दूसरे मसाले और हाँ बुरांश के फूल में से गुज़रते हुए एक ऐसे सफ़र पर निकल पड़ी हैं जो पाठक के अवचेतन में कुछ ऐसा असर पैदा करती है जो पौराणिक भी है और आधुनिक भी, छायावादी भी है और प्रगतिवादी भी, व्यक्तिगत भी और सार्वजनिक भी। यह एक बहुत ही ख़ामोश सफ़र है जिसके भीतरी क़दम उतने ही महत्त्वपूर्ण हैं जितने की उसके बाहरी दाँव-पेच (चाहे वो कविता की भाषा, बिम्ब और ध्वनि में व्यक्त होते हैं)। ऐसा कहा जा सकता है कि पार्क में हाथी संकलन में कवयित्री एक भीतरी ध्वनि की खोज में एक ऐसे ख़ामोश और तिलिस्मी सफ़र पर निकली हैं जो शायद कविता के इतिहास में कभी हमने बाड्ला के कवि जीवनानन्द दास में पाया
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