काव्य मानव की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि ही नहीं एक सार्वभौम सत्य भी है। देश और काल की सीमाओं का अतिक्रमण करता हुआ यह काव्य ही आज के विषम एवं तनावपूर्ण मानव-जीवन की एकता, समानता एवं निरन्तरता का दस्तावेज़ है। मानवीय संवेदना के इस सर्जनात्मक दस्तावेज़ को समझने-समझाने का प्रयास शताब्दियों से होता आ रहा है। काव्यशास्त्र में विद्यमान विविधता के बीच भी एक निरन्तरता लक्षित होती है जो उसे मानवीय संवेदना एवं सौन्दर्य-भावना की निरन्तरता से प्राप्त होती है। 'पाश्चात्य काव्यशास्त्र' हिन्दी का प्रथम ग्रन्थ है जिसमें प्लेटो से इलियट तक महत्त्वपूर्ण पाश्चात्य काव्य समीक्षकों के विचारों का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में गम्भीर एवं विशद विश्लेषण किया गया है। इन आचार्यों के में विद्यमान उन सत्रों को भी रेखांकित किया गया है जो काव्यशास्त्र के विकासात्मक अध्ययन की संगति एवं उपयोगिता के व्यंजक हैं। साथ ही पश्चिम के प्रमुख काव्य सिद्धान्तों एवं वादों की समीक्षा भी की गयी है। प्रत्येक विचार के विवेचन की दो दृष्टियाँ रही हैं-एक, उस विचार के स्वरूप के स्पष्टीकरण की दृष्टि-दो, उस विचार की आधुनिक प्रासंगिकता की पहचान की दृष्टि। भारतीय काव्यशास्त्र की परम्परा भी अत्यन्त समद्ध है। क्योंकि काव्यशास्त्र भारतीय एवं पाश्चात्य दोनों का स्रोत काव्य एवं मानव-जीवन है, इसलिए यह स्वाभाविक है कि विविध देशों एवं कालों के काल-चिन्तन में भिन्नता के साथ-साथ समानता भी हो। इस ग्रन्थ में पाश्चात्य काव्यशास्त्र के विविध विचारों की समीक्षा करते हए भारतीय काव्य-चिन्तन से उसकी समानता या विरोध की चर्चा भी की गयी है। ये संकेत-सूत्र काव्यशास्त्र के क्षेत्र में गम्भीर शोध की दिशाओं के व्यंजक बन जाते हैं और साथ ही यहाँ तुलनात्मक काव्यशास्त्र की भूमिका भी देखी जा सकती है।
डॉ. तारक नाथ बाली हिन्दी साहित्य के वरिष्ठ समीक्षक डॉ. तारक नाथ बाली का जन्म 17 नवम्बर 1933 को रावलपिंडी में हुआ। आरम्भिक शिक्षा डैनीज हाई स्कूल में हुई। 1947 में देश के विभाजन के समय आगरा आये। डॉ. बाली ने सन् 1955 में आगरा कॉलिज, आगरा में अध्यापन कार्य आरम्भ किया। सन् '57 में किरोड़ीमल कॉलिज, दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्राध्यापक के रूप में आये तथा दो वर्ष के अन्तराल के अतिरिक्त सन् '71 तक वहीं रहे। इन दो वर्षों में-1959-1961 में दिल्ली विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर सांध्य-संस्थान में हिन्दी विभाग में प्राध्यापक नियुक्त हुए जहाँ हिन्दी की सांध्य-स्नातकोत्तर कक्षाओं के अध्यापन की स्थापना और संयोजन में योग दिया। सन् 1971 में दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के रीडर नियुक्त हए तथा वहीं सन् 1983 में प्रोफ़ेसर हए। सन् 1985-86 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने उन्हें राष्ट्रीय प्रवक्ता मनोनीत किया। इसके बाद वे दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष तथा कलासंकाय के अधिष्ठाता रहे। आधुनिक हिन्दी काव्य तथा भारतीय एवं पाश्चात्य काव्यशास्त्र अध्ययन के विशेष क्षेत्र हैं। 'रस-सिद्धान्त की दार्शनिक एवं नैतिक व्याख्या' (1962) शोध-प्रबन्ध से हिन्दी के रस-विवेचन में एक नयी समीक्षा-धारा का सत्रपात हुआ तथा परवर्ती रस-विवेचन पर उसका गहरा प्रभाव पड़ा। आपके अन्य प्रमुख प्रकाशित आलोचना ग्रन्थ हैं : आलोचना : प्रकृति और परिवेश, साधारणीकरण, संप्रेषण और प्रतिबद्धता. सांस्कृतिक परम्परा और साहित्य यगद्रष्टा कबीर महादेवी वर्मा, पन्त और उत्तर छायावाद और कामायनी।
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