पता नहीं क्या होगा - \nहरजेन्द्र चौधरी समकालीन कहानी के जाने-माने नाम हैं। 'पता नहीं क्या होगा' उनका पहला कथा-संग्रह है। इसमें संकलित कहानियों से गुज़रते हुए हमें हमारे समय की बनती-बिगड़ती छवियाँ दिख पड़ती हैं। ख़ासकर नब्बे के बाद का समय, जो तमाम विराट सामाजिक व्यवस्थाओं के ध्वंस एवं चमकीले उदारीकरण के उदय का समय है, अपनी आत्मा में गहरे तक धँसे घातों-प्रतिघातों के साथ इन कहानियों में उद्भासित-उद्घाटित हुआ है। अच्छी बात यह है कि मोहभंग के इस युग को चित्रित करने में ज़्यादातर लेखकों की तरह हरजेन्द्र यहाँ स्वयं मोहग्रसित नहीं होते, न वे किसी प्रवक्ता-सी उदासी ही अख़्तियार करते हैं। यहाँ न तो पुराने के प्रति आसक्ति दिखती है न नये की अहेतुक सिफ़ारिश, न यहाँ किसी तरह का बयान है, न बखान।\nहरजेन्द्र के पात्र व कहानियों में वर्णित घटनाक्रम काफ़ी पहचाने से लगते हैं। पहचान की स्फीति में ये कहानियाँ बहुलार्थी-बहुवचनी हो उठती हैं। ख़ासकर संग्रह की शीर्षक कहानी—'पता नहीं क्या होगा' और 'लेजर शो'। 'नये फ्लैट में', 'अन्नपूर्णा', 'स्नोगेम्स', 'भूकम्प', 'दरवाज़ा खुला है' जैसी कहानियाँ रिश्तों में घुसपैठ करते ठंडापन की नब्ज़ टटोलती हैं। 'चिल्लर', 'चोम्स्की का चाचा', 'पनियल', 'लेटेस्ट गेम्स' जैसी कहानियाँ हमारे सामने उस भयावह यथार्थ को उद्घाटित करती हैं जिससे हम बुरी तरह घिरे हैं, लेकिन इसका कथात्मक रूपान्तरण कर हरजेन्द्र हमें एकबारगी झकझोर देते हैं। संक्षेप में, एक सर्वथा स्वागतयोग्य संग्रह। हरजेन्द्र को बधाई।—कुणाल सिंह
हरजेन्द्र चौधरी - जन्म : 2 दिसम्बर, 1955, गाँव धनाना, ज़िला : भिवानी (हरियाणा)। दिल्ली विश्वविद्यालय से एम.ए., एम.फिल., पीएच.डी., एल.एल.बी.। 1983 से कॉलेज ऑफ़ वोकेशनल स्टडीज़ (दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन)। 1944 से 1996 ओसाका यूनिवर्सिटी ऑफ़ फॉरेन स्टडीज़ (जापान) तथा 2001 से 2005 वार्सा विश्वविद्यालय (पोलैंड) के भारतविद्या विभाग में अध्यापन। प्रकाशन: 'इतिहास बोलता है', 'जैसे चाँद पर से दिखती धरती', 'फ़सलें अब भी हरी हैं' (कविता संग्रह)। अनेक सम्पादित पुस्तकों में लेख प्रकाशित। समय-समय पर अनेक पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानियाँ, समीक्षाएँ, शोध-लेख तथा शैक्षिक सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दों पर केन्द्रित लेख प्रकाशित। कुछ रचनाएँ अंग्रेज़ी सहित विदेशी व भारतीय भाषाओं में अनूदित-प्रकाशित।
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