भारतवर्षीय दर्शन परम्परा में अनेक सम्प्रदाय, पद्धतियां, चिन्तन-मार्ग अाैर साधना के अायाम हैं। वे सभी पद्धतियाँ मुख्यत: तीन ग्रन्थाें पर अाधारित हैं। िजनमें कुमारिल भट्ट का श्लाेकवार्त्तिक, धर्मकीर्ति का प्रमाणवार्त्तिक, तथा गङ्गेश उपाध्याय का तत्त्वचिन्तामणि हैं। वे तीन ग्रन्थ अाज तक की भारतीय दर्शन परम्परा के प्रतिनिधि ग्रन्थ हैं अाैर तीन मार्गाें के रूप में स्थापित हैं। हम कुछ भी चिन्तन, लेखन या विचार करते हैं ताे वे इन तीनाें में से किसी एक मार्ग में स्वतः ही चले अाते हैं।\n\nधर्मकीर्ति का यह प्रमाणवार्त्तिक ग्रन्थ अत्यन्त कठिन हाेने से इस ग्रन्थ का अब तक किसी भी भाषा में पूर्ण रूप से अनुवाद नहीं हाे पाया है। इसके कुछ श्लाेक अंग्रेज़ी में अनुदित हैं ताे कुछ हिन्दी, फ्रेंच, जर्मन अाैर नेपाली में भी अनुदित हुए हैं। किन्तु अब तक पूर्ण ग्रन्थ का अाैर इसकी किसी भी टीका का पूर्ण अनुवाद न हाेना इसकी भाषा का कठिन हाेना, विचाराें का गूढ़ हाेना तथा अत्यन्त दुरुह प्रकरणाें का हाेना ही कारण रहा है। कुछ विदेशी विद्वान् इसका अंग्रेज़ी में अनुवाद करने के लिए भी लगे हुए हैं किन्तु बीसाें वर्षाें के बाद भी वे इसे पूरा नहीं कर सके हैं। अतः यह हिन्दी अनुवाद अपने अाप में प्रथम पूर्ण अनुवाद अाैर सम्पादन है।\n\nप्रस्तुत ग्रन्थ में पाँच प्रकरण हैं – 1. प्रमाण सिद्धि परिच्छेद, मनाेरथनन्दी के साथ; 2. प्रत्यक्ष परिच्छेद ,मनाेरथनन्दी के साथ; 3. स्वार्थानुमान परिच्छेद, स्वाेपज्ञवृत्ति सहित (जाे कि धर्मकीर्ति की अपनी ही वृत्ति है); 4. स्वार्थानुमान परिच्छेद, मनाेरथनन्दी के साथ; अाैर 5. परार्थानुमान परिच्छेद, मनाेरथनन्दी के साथ।\n\nइस ग्रन्थ में प्रथम बार समग्र प्रमाणवार्त्तिक का उपस्थापन किया गया है। इस में स्वयं धर्मकीर्ति की स्वाेपज्ञवृत्ति स्वार्थानुमान परिच्छेद में वर्णित है जिसका अनुवाद सहित उपस्थापन पाँचवें परिच्छेद के रूप में रखा गया है।
Dr Kashinath Nyopane is at present Professor of Buddhist Philosophy in the Sanskrit University of Nepal, Kathmandu. He has to his credit numerous research papers in the leading journal of Philosophy which cover his vide range of scholarship in Sanskrit tradition. The major publications of Dr Kashinath Nyopane include Mimamsa Padarth Vijnanam, Mimamsa Tarkbhasha, Mimamsa Nayabhushah, Bauddha Darshana Bhumi and Sautrantik Darshanam. He has translated Hevajratantram and Shriguhyasamaj-tantram into Hindi. He has visited many times the universities of Germany and China as a visiting faculty to promote the teaching of Indian Philosophical Classics.
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