प्रत्यंचा - \nज्ञान चतुर्वेदी व्यंग्य में इस कदर मुब्तला लेखक हैं कि व्यंग्य से उन्हें अलगाकर देख पाना सम्भव नहीं, मानो ज्ञान और व्यंग्य एक दूसरे के पर्याय बन गये हों, सिक्के के दो कभी न अलग होने वाले पहलुओं की तरह। \nलेखन का छोटा-बड़ा कोई भी प्रारूप उन्हें सीमित नहीं करता। वे हमारे समय के सर्वाधिक समर्थ व्यंग्यकार हैं। अपने व्यंग्यों में वे समय-समाज के निर्मम सत्यों का मात्र उद्घाटन ही नहीं करते बल्कि उन पर गहन वैचारिक टिप्पणी करते हैं। यह वैचारिक टिप्पणियाँ भी व्यंग्य की बहुआयामिकता से सम्पन्न होने के कारण पाठक को सहज रूप से प्रभावित करती हैं। \nकहना न होगा कि व्यंग्यदृष्टि और लोकदृष्टि के सम्यक बहाव में ज्ञान लोकप्रियता और साहित्यिकता की खाई को भरसक पाटने का भी कार्य करते हैं। हम आज उस समाज के नागरिक हैं जहाँ नंगापन एक जीवनशैली के रूप में स्वीकृत हो गया है। विसंगतियों से भरपूर इस उत्तर आधुनिक समय में ज्ञान चतुर्वेदी के व्यंग्य लेखन को एक ज़रूरी हस्तक्षेप की तरह देखा और पढ़ा जाना चाहिए। —राहुल देव (युवा आलोचक)
ज्ञान चतुर्वेदी - 2 अगस्त, 1952 को उत्तर प्रदेश के मऊरानीपुर क़स्बे में जन्मे। शिक्षाकाल स्वर्णपदकों के साथ मेडिकल कॉलेज रीवाँ से एम.बी.बी.एस. तथा एम.डी.। हिन्दी व्यंग्य में व्यंग्य-उपन्यासों की विरल परम्परा को बढ़ाने एवं निश्चित दिशा देने का महत्त्वपूर्ण कार्य। प्रकाशित रचनाएँ हैं—'नरकयात्रा', 'बारामासी', 'मरीचिका' (तीन व्यंग्य उपन्यास)। फुटकर रूप में लगभग तीन सौ व्यंग्य रचनाएँ। अब तक पाँच व्यंग्य संग्रह प्रकाशित। ज्ञानोदय और इंडिया टुडे के अपने नियमित व्यंग्य-कॉलमों के ज़रिये हिन्दी जगत के अत्यन्त लोकप्रिय हस्ताक्षर।
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