Prayog Champaran

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प्रयोग चम्पारण - मेरा जीवन ही मेरा सन्देश है, कहने वाले गाँधी ने चम्पारण सत्याग्रह के दौरान अपनी वेश-भूषा बदली, भोजन बदला, संघर्ष का नया तरीक़ा अपनाया और लगभग जादू वाले अन्दाज़ में वहाँ के लोगों और बाहर से जुटे अपने सहयोगियों से ज़बरदस्त रिश्ता और संवाद क़ायम किया। जिस इलाक़े को वे नहीं जानते थे, जिस नील को नहीं जानते थे, जिस बोली भोजपुरी और दस्तावेज़ों की कैथी लिपि को नहीं जानते थे उनसे उनका संवाद और सम्बन्ध कैसे हुआ और उन्हें गाँधी ने कितना बदला यह तो हैरान करता ही है लेकिन गाँधी ने चम्पारण को नील से मुक्ति दिलाने के साथ देश और दुनिया को उस ब्रिटिश उपनिवेशवाद से मुक्ति दिलाने की शुरुआत भी कर दी जिसका खुफ़िया और प्रशासनिक तन्त्र हर घर, हर व्यक्ति से लेकर दुनिया पर नज़र रखता था। और जब सड़क, रेल, फ़ोन और लन्दन से तीन-तीन केबल लाइनों के ज़रिये जुड़कर यह महाबलि ख़ुश हो रहा था कि अब उसके राज को कोई ख़तरा नहीं हो सकता, तब गाँधी ने किस तरह अपने कम्युनिकेशन कौशल से राज को उखाड़ा, यह किताब उसी चीज़ को समझने की कोशिश है। वर्षों के श्रम, अध्ययन और चम्पारण तथा गाँधी से रिश्ता रखनेवाले लेखक ने इस पहेली को समझने-बताने का यह कैसा प्रयास किया है यह पाठक ही तय कर सकते हैं।

अरविन्द मोहन - जन्म: 1960, चम्पारण (बिहार)। पत्रकारिता में परिचित नाम अरविन्द मोहन चम्पारण के एक गाँधीवादी परिवार से आते हैं। इस परिवार का गाँधी प्रेम, गाँधी के चम्पारण पहुँचने के दिन से ही शुरू हुआ जो इस किताब तक जारी है। अरविन्द मोहन जनसत्ता, हिन्दुस्तान, इंडिया टुडे, अमर उजाला, सीएसडीएस और एबीपी न्यूज़ से जुड़े रहे हैं और बाहर भी उन्होंने ख़ूब लिखा और टीका-टिप्पणियाँ की हैं। अपनी पढ़ाई-लिखाई के लिए पहचाने जानेवाले इस लेखक ने कई बार नियमित पत्रकारिता से ब्रेक लेकर कुछ गम्भीर काम किये हैं, जिनमें पंजाब जानेवाले बिहारी मज़दूरों की स्थिति का अध्ययन, देश की पारम्परिक जल संचय प्रणालियों पर पुस्तक का सम्पादन और गाँधी के चम्पारण सत्याग्रह पर कुछ और किताबें शामिल हैं। उन्होंने क़रीब एक दर्जन किताबों का लेखन और सम्पादन किया है और इतनी ही चर्चित किताबों का अनुवाद। कई पुरस्कारों और सम्मानों से नवाज़े गये अरविन्द दिल्ली विश्वविद्यालय और जामिया मिलिया समेत कई नामी संस्थानों में मीडिया अध्यापन भी करते हैं। यह किताब महात्मा गाँधी हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा का अतिथि लेखक रहने के दौरान लिखी गयी है।

अरविंद मोहन

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