इस उपन्यास का जो कथा-संसार है वह अपने-आपमें एक दुनिया है, एक ऐसी दुनिया जो पहले भी थी, अभी भी है, आगे भी रहेगी। बिहार जैसे हिंदी प्रदेश के राज्यों से हज़ारों बच्चे हर साल उम्मीद की नाव लेकर प्रतियोगी परीक्षाओं की उन लहरों पर उतर पड़ते हैं जिनपर डूबते-उतराते हुए पार उतरने की जद्दोजहद ही जैसे ज़िंदगी बन जाती है। कुछ अपने लक्ष्य तक पहुँच जाते हैं, कुछ नई दिशा ले लेते हैं। कुछ का संघर्ष बहुत लंबा हो जाता है, कुछ संघर्ष की इन लहरों से टकराते हुए डूब जाते हैं—ऐसे कि ज़िंदगी भर नहीं उबर पाते।\nयह यात्रा आनंददायक है और कष्टप्रद भी। इसमें आशा है, निराशा है, सफलता का आनंद है, असफलता का दंश है, पर यह यात्रा है जो चुंबक की तरह अपनी ओर खींचती है, ऐसा कि रात-दिन, सुबह-शाम वही लहू बनकर रगों में दौड़ती रहती है और फिर जुनून का ऐसा सैलाब बन जाती है, जैसा ग़ालिब ने कहा है :\n\nरगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल\n\nजब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है!
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Sunil JhaAdd a review
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