रामस्नेही सम्प्रदाय : परम्परा, सिद्धान्त और दर्शन - राजस्थान की धर्मधरा पर अवतरित हुए स्वामी रामचरण जी महाराज (संवत् 1776-1855) भी परमेश्वर के निर्गुणरूप में आस्था रखने वाले थे उनका परब्रह्म परमेश्वर निर्गुण 'राम' है, जो कि दशरथपुत्र सगुण-साकार राम नहीं, वरन् सभी निर्गुणमार्गी सन्त भक्तों की तरह उनसे भिन्न लौकिक गुणों व रूप-आकार से सर्वथा परे है और उसी राम से प्रेम या स्नेह करना, उसकी किसी भी विधि से नामजप-सुमिरण-ध्यान- चिन्तन-मनन आदि-आदि द्वारा साधना-आराधना करना ही मनुष्य के लिए श्रेष्ठ, प्रशस्त तथा उद्धारक है। इसी विचारावधारणा को लेकर चलने वाले स्वामी रामचरण जी महाराज ने जनहितार्थ मानव समाज को निर्गुण ‘राम' की साधना-भक्ति का मार्ग व सिद्धान्त दिया और इसी उपक्रम में राजस्थान में एक नवीन सम्प्रदाय ‘रामस्नेही सम्प्रदाय' अस्तित्व में आया; जिसकी स्थापना या प्रवर्तन का श्रेय स्वामी जी को जाता है। राम से प्रेम या स्नेह करने के कारण तथा राम को अपनी आस्था के केन्द्र में रखकर उनकी साधना-भक्ति करने के कारण 'रामस्नेही' नाम की सार्थकता पूर्णरूपेण सिद्ध होती है। क्योंकि सम्प्रदाय में एकमात्र 'राम' को इष्ट-आराध्य अथवा प्रभु या ईश माना गया है; इनके अतिरिक्त अन्य कोई दैवी शक्ति या आस्था का केन्द्र स्वीकार्य नहीं है। राम के बिना सब कुछ खाली या शून्य है- 'राम बिना सब खाली'। एकमात्र निर्गुण राम का जाप-पाठ, ध्यान-चिन्तन ही सभी कार्यों को साधने वाला है- "सकल पाठ का मूल है, रामचरण इक राम। जिनूं सोधि सुमरण किया, जिनका सरिया काम।" अपनी सारवत्ता और बहुविध महत्ता के कारण ही यह सम्प्रदाय तत्काल से अद्यतन लोगों को प्रभावित व आकर्षित करने में सफल रहा है। सम्प्रदाय की प्रमुख पीठ शाहपुरा (भीलवाड़ा), राजस्थान में है तथा देश-प्रदेश एवं विदेश में अनेक रामद्वारे हैं एवं सम्प्रदाय के अनुयायी अनगिनत भक्त-साधक व श्रद्धालुजन हैं, जो 'राम' को अपनी आस्था के केन्द्र में रखकर उन्हीं का सुमिरन, जप एवं साधना-उपासना करते हैं और सम्प्रदाय के समस्त नियम-सिद्धान्तों की अनुपालना करते हैं। पाखण्ड-प्रपंच व कर्मकाण्डों का अभाव, सदाचार-विचार-व्यवहार, परिष्कृत जीवनशैली और श्रेष्ठ व प्रशस्त, तार्किक एवं वैज्ञानिक जीवनदर्शन इत्यादि सम्प्रदाय की ऐसी विशिष्टताएँ हैं, जो जन-जन के लिए हितकारी और समाजकल्याणविधायिनी हैं तथा इस सम्प्रदाय की लोकप्रियता व प्रासंगिकता का कारण बनी हुई हैं। क्योंकि केवल मुख-वाणी, मन-मस्तिष्क व हृदय या अन्तःकरण से रामनाम का सुमिरन-जाप, चिन्तन-मनन तथा वास बनाये रखने में आर्थिक संसाधनों व धन की आवश्यकता नहीं पड़ती है, इसलिए यह आर्थिक दृष्टि से प्रत्येक मानव के लिए बड़ा ही सरल व सुकर है। निर्गुण ब्रह्म या राम की अवधारणा किसी भी प्रकार के वाद-विवाद अथवा मत-मतान्तर या सम्प्रदायवाद का कारण भी नहीं बनती, इसलिए सामाजिक सद्भाव, सौहार्द, समरसता आदि की दृष्टि से भी प्रशस्त है। रामनाम का मन-मस्तिष्क एवं हृदय से किया गया चिन्तन-मनन व जाप और सम्प्रदाय के सद् सिद्धान्त व्यक्ति को धार्मिक-आध्यात्मिक उत्कर्ष के साथ ही चारित्रिक उत्कर्ष करने वाले बने रहते हैं, अतः यह भी सम्प्रदाय की श्रेष्ठता तथा प्रासंगिकता का आधार है। -इसी पुस्तक से
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Dr. Deepika VijayvargiyaAdd a review
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