सहस्रफण - \n'सहस्रफण' कवि-सम्राट विश्वनाथ सत्यनारायण का बृहत् एवं सर्वमान्य उपन्यास है। 1934 में रचित इस उपन्यास में मुख्यतया भारतीय जन-जीवन के 'सन्धिकाल' का चित्रण है। प्राचीन संस्कृति के मूल्यों पर अंग्रेज़ सरकार का सहारा लेकर किये गये आघात, अन्ध-अनुकरण के फलस्वरूप भारतीय जीवन की हो चुकी एवं हो रही दुर्गति, 'स्वधर्म' की वास्तविक महत्ता आदि बातों का अत्यन्त प्रभावशाली अनुशीलन इस उपन्यास में किया गया है। कहा जा सकता है कि इसमें इतिहास भी है, समाजशास्त्र भी है, राजनीति भी है और प्राचीन संस्कृति का निरूपण भी है। और सबसे बड़ी विशेषता है इसके कथानक की रसात्मकता।\nकथा-संविधान, पात्र-पोषण, वर्णन-पटुता, कथोपकथन-चमत्कार, उदात्त कल्पना-प्रचुरता एवं कलामय धर्मासक्ति—इनके माध्यम से कृतिकार ने जिस वर्तमान 'सन्धिकाल' की पृष्ठभूमि उपन्यास में निरूपित की है, उसके अनुसार लेखक का आशय है कि आज हमारी प्राचीन आस्थाएँ तो शिथिल पड़ रही हैं, किन्तु उनके स्थान पर उतने ही स्पृहणीय नये मूल्यों की स्थापना नहीं हो सकी है।\nधर्म के प्रति विशिष्ट आश्वस्तता के साथ-साथ गहन शास्त्रीय विवेचन और प्रगाढ़ औपन्यासिक स्वरूप का निर्वाह 'सहस्रफण' में जितना और जैसा हो पाया है, इसका विस्मयकारी अनुभव पढ़कर ही किया जा सकता है। उपन्यास का हिन्दी रूपान्तर किया है डॉ. पी.वी. नरसिंह राव ने।\nहिन्दी पाठकों को समर्पित है इस महत्त्वपूर्ण कृति का नवीनतम संस्करण।

विश्वनाथ सत्यनारायण - तेलुगु साहित्य में कवि-सम्राट के नाम से विख्यात। जन्म: 1875, नन्दपूर गाँव, कृष्णा, ज़िला, आन्ध्र प्रदेश शिक्षा: एम.ए. (तेलुगु तथा संस्कृत)। अध्यापक, आचार्य एवं कुछ समय तक एक महाविद्यालय के प्राचार्य। आन्ध्र प्रदेश विधान परिषद् के भूतपूर्व मनोनीत सदस्य। आन्ध्र प्रदेश साहित्य अकादमी के भूतपूर्व उपाध्यक्ष एवं आजीवन सदस्य रहे। लगभग तीस वर्ष की अपनी अविराम साहित्य साधना के बल पर समसामयिक तेलुगु साहित्य मंच पर सर्वाधिक प्रतिष्ठित रहे। प्रकाशन: कविता, उपन्यास, नाटक, कहानी, आलोचना आदि विधाओं में सौ से अधिक पुस्तकें प्रकाशित। इनमें लगभग 60 उपन्यास, 20 काव्य, 4 गीतिकाव्य, 13 नाटक और 7 समालोचना सम्मिलित हैं। प्रमुख कृतियाँ हैं—'रामायण कल्पवृक्षमु', 'श्रृंगारवीथि', 'ऋतुसंहारम्' (काव्य), 'वेयपडगलु', 'एकवीरा', 'सहस्रफण' (उपन्यास); 'किन्नेरसानिपाटलु' और 'कोकिलम्मा पेण्डिल' (गीतकाव्य) तथा 'अनारकली', 'नर्तनशाला', 'वेनराजु' (नाटक)। सम्मान: सन् 1964 में आन्ध्र विश्वविद्यालय द्वारा 'कला-प्रपूर्ण' उपाधि से सम्मानित। 'मध्याक्करलु' काव्यकृति के लिए साहित्य अकादेमी पुरस्कार तथा 'रामायण कल्पवृक्षमु' के लिए 1970 के ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित। 'पद्मभूषण' उपाधि से अलंकृत।

विश्वनाथ सत्यनारायन अनुवाद पी. वी. नरसिंहराव

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