समय-बे-समय - \nदेवेन्द्र, जिन्होंने आज के भारतीय समाज में मानवीय संवेदना की हत्या करनेवालों की पहचान करानेवाली कई महत्त्वपूर्ण कहानियाँ लिखी हैं। उनके पास परस्पर विरोधी स्थितियों और मनोदशाओं के चित्रण में सक्षम एक ऐसी कथाभाषा है जो पाठकों को गहरे स्तर पर बेचैन करती है। —डॉ. मैनेजर पांडेय\n\nदेवेन्द्र बड़े ही झोली फटकार अन्दाज़ में अपने चरित्रों से पेश आते हैं। इन्हें अपने पात्रों से बेइन्तहा लगाव भी है और साथ ही उतनी ही नफरत भी। कहानी लिखना देवेन्द्र के लिए स्वयं अपने को सँवारने, तोड़ने की तरह सामने आता है। हर कहानी में वे लगभग इसी प्रक्रिया से गुज़रते दिखाई देते हैं। वे जैसे कोई कहानी नहीं लिखते, अपना प्यार, अपना ग़ुस्सा, अपनी चाहत, अपनी नफरत, अपने द्वन्द्व, अपनी असफलताएँ, अपने उल्लास, अपने स्वप्न का आलम्बन ढूँढ़ते हैं। लेकिन यह कोई आत्माभिव्यक्ति या आत्मनिरसन नहीं है। उनके ध्यान में सबसे पहले अपना समय है और समय की चकरघिन्नी पर घूमता राजनीति से लेकर घर तक का समूचा परिदृश्य है। —डॉ. शम्भु गुप्त
देवेन्द्र - जन्म: 1 जनवरी, 1958, गाजीपुर जनपद के पिपनार गाँव में। कुछ दिन लखीमपुर खीरी और अब लखनऊ में रहकर अध्यापन। 1996 में प्रकाशित पहला कहानी संग्रह 'शहर कोतवाल की कविता' पर 'इन्दु शर्मा कथा सम्मान', 'यशपाल कथा सम्मान' और सावित्री देवी फ़ाउंडेशन का 'हिन्दी कथा सम्मान'। इसी बीच आलोचना की एक पुस्तक 'नक्सलबाड़ी आन्दोलन और समकालीन हिन्दी कविता' प्रकाशित।
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