सतवीर बहुत परिश्रमपूर्वक पूरी की पूरी पीढ़ी को सफलता के शॉर्टकट का भ्रष्ट सपना बेच रहे थे। भारत में न पैदा हो पाये एक भी वैज्ञानिक, चिन्तक, दार्शनिक या और कोई उनके सन्तोष के लिए यही काफी था कि मैं चोरी नहीं कर रहा, डाका नहीं डाल रहा, चीटिंग नहीं कर रहा, सुबह से शाम तक ख़टता हूँ, बीवी भी, तब भी देखिए, आइकॉन फोर्ड नहीं खरीद पाये, मातीस से काम चलाना पड़ रहा है। उन्हें पता ही नहीं था कि वह क्या कर रहे हैं और जो वह कर रहे हैं उसे एक भयानक क़िस्म का चोरी-डाका भी कहा जा सकता है।\n- इसी पुस्तक से .... तीस- पैंतीस वर्ष हो गये। स्वयं प्रकाश आज महत्त्वपूर्ण लेखकों में शुमार हैं। अपनी पीढ़ी के कई लेखकों को पीछे छोड़ दिया है। कुछ ठहर गये हैं, कुछ उखड़ गये हैं, कुछ के मुद्दे बदल गये हैं। इस आदमी ने जनता का पक्ष नहीं छोड़ा और जनता के शत्रु से समझौता नहीं किया। ज़िन्दगी जहाँ से गुज़री, अपने लिए रास्ता निकालती रही। जटिल से जटिल स्थितियों से कहानी-उपन्यास लेकर आया। आँखें खुली रखीं तो समय का कोई झंझावात ओझल नहीं हुआ। कुछ भी छिपा नहीं ।\nस्वयं प्रकाश की कोई रचना अमूर्त नहीं है। उनमें प्रेम-घृणा संघर्ष सब कुछ है । स्वरूप ग्रहण करता हुआ देश-काल । दो दर्जन से अधिक प्रकाशित पुस्तकें इसका साक्ष्य हैं। अपने समय के इतने चरित्र बहुत कम कथाकारों ने रचे होंगे। पहले के लेखकों में प्रेमचन्द - नागार्जुन - रेणु और परसाई ने रचे, फिर काशी - स्वयं प्रकाश ने चरित्रों में नायक खलनायक दोनों हैं। दोनों कभी-कभी एक ही पात्र में मौजूद । दो ही नहीं, अनेक ध्रुवों के चरित्र अपनी-अपनी भूमिका में ।\nस्वयं प्रकाश की कहानियों की यही प्रकृति है। वह समाज के किसी समूह की किसी एक स्थिति को उसमें शामिल पात्रों के साथ उठाते हैं। उसका रूपाकार रचते हैं। पूरी दृश्यावली इस कोण से सामने आती है कि वही सब कुछ कह जाती है।\nजो बतकही को जाने, बातों में रस ले, मुद्राओं के रास्ते दिल तक घुस सके, वही इसे जानेगा। यह गुण हमारे जातीय लेखकों का है-बालकृष्ण भट्ट, प्रताप नारायण मिश्र, हरिशंकर परसाई और नागार्जुन का। यही स्वयं प्रकाश की भी कला है।\n-डॉ. कमला प्रसाद
स्वयं प्रकाश - जन्म : 20 जनवरी 1947, इन्दौर (म.प्र.)। शिक्षा : मैकेनिकल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा, एम.ए. (हिन्दी), पीएच.डी.। प्रकाशित पुस्तकें : (कहानी संग्रह) मात्रा और भार, सूरज कब निकलेगा, आसमाँ कैसे कैसे, अगली किताब, आयेंगे अच्छे दिन भी, आदमी जात का आदमी, अगले जनम, सन्धान, कहानियों के कुछ चयन भी; (पत्र) डाकिया डाक लाया; (उपन्यास) ज्योतिरथ के सारथी, जलते जहाज़ पर, उत्तर जीवन कथा, बीच में विनय, ईंधन; (निबन्ध) स्वान्तःदुखाय, दूसरा पहलू, रंगशाला में एक दोपहर, एक कथाकार की नोटबुक, लिखा पढ़ा; (रेखाचित्र) हमसफ़रनामा; (नाटक) फ़ीनिक्स, चौबोली; (बाल साहित्य) सप्पू के दोस्त, प्यारे भाई रामसहाय, हाँजी नाजी, परमाणु भाई की दुनिया में, हमारे विज्ञान रत्न; (अनुवाद) पंगु मस्तिष्क, अन्यूता, लोकतान्त्रिक विद्यालय; (सम्पादन) सुनो कहानी, हिन्दी की प्रगतिशील कहानियाँ। आठवें दशक में राजस्थान से जनवादी पत्रिका 'क्यों' का सम्पादन, मधुमती के विशेषांक के साथ बच्चों की पत्रिका 'चकमक' का सम्पादन, विगत लगभग एक दशक तक प्रगतिशील लेखक संघ की पत्रिका 'वसुधा' का सम्पादन । सम्मान : राजस्थान साहित्य अकादेमी पुरस्कार, गुलेरी सम्मान, सुभद्रा कुमारी चौहान पुरस्कार, बनमाली पुरस्कार, पहल सम्मान, कथाक्रम सम्मान, भवभूति अलंकरण, साहित्य अकादेमी का बाल साहित्य पुरस्कार 2017, पाखी पत्रिका का शब्द साधक शिखर सम्मान 2018। अन्य : राजस्थान साहित्य अकादेमी द्वारा मोनोग्राफ प्रकाशित, लेखक-विश्वम्भरनाथ उपाध्याय। साहित्यिक पत्रिकाओं 'चर्चा', 'सम्बोधन', 'राग भोपाली', 'बनास', 'संवेद', 'चौपाल', 'सृजन सरोकार',' 'पाखी' और 'साम्य' द्वारा रचनाकर्म पर विशेषांक प्रकाशित। स्मृति शेष: मुम्बई, 7 दिसम्बर 2019।
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