सौ साल फ़िदा - गौरव सोलंकी की कविताएँ बिना किसी भूमिका के हमारे जीवन में दाखिल होती हैं। वे एक अनूठे फॉर्म में हमारे सामने आती हैं, बिना किसी कवच के। वे इतनी निहत्थी हैं जहाँ कोई डर नहीं बचता। उनके रोने में भी लगातार एक चुनौती, एक दहाड़ और एक ग़ुस्सा है और हम उन कविताओं की नग्नता को उनकी निरीहता समझकर उन्हें तसल्ली देना चाहते हैं, तब वे हमारे हाथ झटक देती हैं और हमें हमारी औसत, अँधेरी ज़िन्दगियों में भीतर तक खींच ले जाती हैं; वहाँ जहाँ भूख, अँधेरा और फ़ोन की बची हुई बैटरी जितना आत्मसम्मान है। ये कविताएँ कहती हैं कि यहाँ यातना के बारे में कुछ नहीं कहा जायेगा और तब वे माँ के हाथ के बने उस चूरमे की बात करती हैं जो आत्मा को छीलता हुआ पेट में उतरता जाता है या उन आँखों की, जिनमें धूप है और जिन्हें जितना देखना है, उतनी अन्धी होती जाती हैं। गौरव की कविताएँ घर लौटने की और इस तरह अपने भीतर लौटने की कविताएँ हैं। वे करोड़ों साल बाद तक की मोहब्बत की बात करती हैं उस प्रेम की, जो ख़ुद को ईश्वर समझता है। वे बार-बार मृत्यु की आँखों में आँखें डालकर देखती हैं और उनमें जीवन के लिए इतनी चाह है कि वे बार-बार हमें चेताती भी हैं कि ये कुएँ में कूद जाने या कविता पढ़ने के दिन नहीं हैं।
गौरव सोलंकी - 7 जुलाई, 1986 को उत्तर प्रदेश के मेरठ ज़िले के एक गाँव जिवाना में जन्म। बचपन राजस्थान के हनुमानगढ़ के एक शान्त क़स्बे संगरिया में। शुरुआती पढ़ाई-लिखाई भी वहीं हुई। 2008 में आई.आई.टी. रुड़की से इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में स्नातक। पहली कहानी 'यहाँ वहाँ कहाँ', 'तद्भव' पत्रिका में। उसके बाद लगभग सभी महत्त्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ और कहानियाँ प्रकाशित। 'तहलक़ा' में सिनेमा पर नियमित कॉलम लिखते हैं। कुछ पटकथाएँ भी लिख रहे हैं। 'पीले फूलों का सूरज' 2009 में कथादेश की अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता में पुरस्कृत 'कद्दूकस' कहानी के लिए राजस्थान पत्रिका का सृजनात्मक साहित्य सम्मान। प्रथम कविता-संग्रह 'सौ साल फ़िदा' को भारतीय ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार।
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