शान्तिनिकेतन से शिवालिक - \nहम एक अजीब दौर से गुज़र रहे हैं। परम्परा से अलगाव, मूल्यों से उदासीनता और 'जो कुछ है', उस सबसे घृणा का दौर कोई नयी चीज़ नहीं है। बहुत पहले यूरोप के कई देश इसी दौर से गुज़र चुके हैं। कमोबेश मात्रा में आज भी दुनिया के कई और काफ़ी हिस्सों में ऐसी ही कशमकश जारी है। किन्तु हमारे विद्रोह, व ग़ुस्सा और जुगुप्सा के भीतर एक विशेष बात है। यह है मनुष्यता के प्रति अविश्वास का भाव। यह एक गम्भीर बात है। तोड़-फोड़, गाली-गलौज, चीत्कार-फूत्कार, बेशर्मी-नंगई आदि मृत परम्पराओं को बदलने के इच्छुक बौद्धिक वर्ग के लिए कभी-कभी साधन होते हैं, पर इसे ही साध्य मानकर अपने ही हाथों घायल और क्षत-विक्षत मनुष्यता को क़ब्र में रख देने का प्रयत्न मूलतः अबौद्धिक है, इसमें भी सन्देह नहीं विद्रोह दिशाहारा न हो, संघर्ष असफल न बने, और खण्ड सन्त्रास हमारे मन से मनुष्यता की सारी सम्भावनाओं को पोंछ न दें, इसके लिए यह आयोजन एक अनिवार्यता बन गया।\nआचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी अपनी कतिपय प्राचीन धारणाओं के बावजूद हिन्दी के विरल व्यक्ति रहे हैं। उनके साहित्य में आस्था का एक ऐसा लचीला और नव्य रूप मिलता है, जिसे आज की हमारी पीढ़ी के साहित्यकार भी समझना पसन्द करेंगे बशर्ते कि वे आस्था की तमाम सम्भावनाओं को परखे बिना ही आस्थाहीन होने का संकल्प न ले चुके हों।\nइस पुस्तक में विभिन्न विद्वानों के निबन्ध, संस्मरण और आलेख सम्मिलित हैं। पुस्तक के सम्पादक ने इन्हें जीवन-यज्ञ, इतिहास-दर्शन, सन्तुलित दृष्टि, अतीत कथा, निर्बन्ध चिन्तन तथा विविध जैसे विभिन्न शीर्षक खण्डों में नियोजित किया है।\nहजारीप्रसाद द्विवेदी के व्यक्तित्व और सृजन की परिचय-परीक्षणात्मक सामग्री के अतिरिक्त पुस्तक के अन्त में कुछ पत्र भी संकलित हैं। ये पत्र सन् 1940 से 1960 के बीच समय-समय पर विभिन्न साहित्यकारों द्वारा द्विवेदीजी को लिखे गये हैं। ये हिन्दी के साहित्यिक विकास के दस्तावेज़ तो हैं ही, स्वतःस्फूर्त होने के कारण द्विवेदीजी के व्यक्तित्व और उनके साहित्यकार के विकास के साक्षी भी हैं। इन पत्रों से पण्डित जी के जीवन के विविध पक्षों पर बहुत स्पष्ट प्रकाश पड़ता है। उनकी आर्थिक स्थिति, स्वभाव, साहित्यिक उपलब्धियाँ, संघर्ष और संकट के क्षण इन पत्रों में अच्छी तरह अभिव्यक्त हुए हैं। आशा है इनका प्रकाशन हिन्दी के इस विरल व्यक्तित्व को सही ढंग से समझने में सहायक होगा।\nइस पुस्तक का प्रकाशन आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की षष्ठिपूर्ति के अवसर पर हुआ था। भारतीय ज्ञानपीठ इस दुर्लभ कृति का 'पुनर्नवा संस्करण' नवीन साज-सज्जा के साथ पाठकों को समर्पित करते हुए गौरव का अनुभव कर रहा है।
डॉ. शिवप्रसाद सिंह 19 अगस्त 1928 को जलालपुर, जमनिया, बनारस में पैदा हुए शिवप्रसाद सिंह ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से 1953 में एम.ए. (हिन्दी) किया। 1957 में पीएच.डी.। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में ही अध्यापक नियुक्त हुए, जहाँ प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष भी रहे। शिक्षा जगत के जाने-माने हस्ताक्षर शिवप्रसाद सिंह का साहित्य की दुनिया में भी उतना ही ऊँचा स्थान है। प्राचीन और आधुनिक दोनों ही समय के साहित्य से अपने गुरु पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी की तरह समान रूप से जुड़े शिवप्रसादजी 'नयी कहानी' आन्दोलन के आरम्भकर्ताओं में से हैं। कुछ लोगों ने उनकी ‘दादी माँ' कहानी को पहली ‘नयी कहानी' माना है। व्यास सम्मान, साहित्य अकादेमी पुरस्कार आदि अनेक पुरस्कारों से सम्मानित। कुछ अन्य पुस्तकें अन्धकूप (सम्पूर्ण कहानियाँ, भाग-1), एक यात्रा सतह के नीचे (भाग-2) अमृता (भाग-3); अलग-अलग वैतरणी, गली आगे मुड़ती है, शैलूष, मंजुशिमा, औरत, कोहरे में युद्ध, दिल्ली दूर है (उपन्यास); मानसी गंगा, किस-किसको नमन करूँ (सम्पूर्ण निबन्धों के दो खण्ड); उत्तर योगी (महर्षि श्री अरविन्द की जीवनी); कीर्तिलता और अवहट्ठ भाषा, विद्यापति, आधुनिक परिवेश और नवलेखन, आधुनिक परिवेश और अस्तित्ववाद (आलोचना) आदि।
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