श्रीशान्तिनाथ - स्तुति-शतकम् - सन्तशिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के ज्ञानध्यानतपोरत सुशिष्य अर्हं श्री मुनि प्रणम्यसागर जी महाराज संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी एवं आंग्ल भाषा के अधीती, न्यायविद् दार्शनिक चिन्तक विद्वान हैं। उनकी काव्य-सरणी में श्रीशान्तिनाथस्तुतिशतकम् भगवान शान्तिनाथ के स्तवन का एक अनुपम उपहार है, जिसमें संक्षेप में उनके जीवन का दिग्दर्शन कराते हुए दार्शनिक भाव रश्मियों की अनोखी छटा दृष्टिगोचर होती है। श्री शान्तिनाथ स्तुतिशतक के रचचिता यतः दिगम्बर साधु हैं और वे सतत् आशान्यूनता से आशाशून्यता की ओर अग्रसर हैं, अतः उनके इस स्तुतिकाव्य में मानव मानस को मूल प्रवृत्तियों, मनः संवेगों एवं भावनाओं के मनोवैज्ञानिक चित्रण के साथ शान्त रस का, शम स्थायीभाव का एवं उनके अनुकूल विभाव, अनुभाव एवं संचारिभावों का विशिष्ट चित्रण हुआ है। काव्यात्मक वैभव एवं भक्तहृदय का महनीय गौरव के कारण यह स्तुतिशतक प्रथम श्रेणी का है। काव्यत्व की दृष्टि से समृद्ध होने पर भी यह स्तुतिकाव्य मूल्यपरक शिक्षाओं से परिपूर्ण है। एक सौ बीस वसन्ततिलका वृत्तात्मक इस स्तुतिकाव्य में प्रत्येक पद्य का हिन्दी पद्यानुवाद स्वयं में एक स्वतन्त्र काव्य है। प्रत्येक पद्य के बाद मन्त्र को दे देने से यह श्री शान्तिनाथ विधान भी बन गया है। विधान के रूप में भी इसका अनुष्ठान भक्तों की भवनाशिनी भावना को वृद्धिंगत करने में समर्थ है। भक्ति, काव्यकला, साधु की अनुभूति, भावाभिव्यक्ति, संप्रेषणकुशलता आदि की दृष्टि से यह रचना अत्यन्त सफल कही जा सकती है।
अर्हं श्री मुनि 108 प्रणम्य सागर जी महाराज - पूर्व नाम : प्र. सर्वेश जी। पिता-माता : श्री वीरेन्द्र कुमार जी जैन एवं श्रीमती सरिता देवी जैन। जन्म : 13-09-1975, भाद्रपद शुक्ल अष्टमी जन्म। स्थान : भोगाँव, ज़िला मैनपुरी (उत्तर प्रदेश)। वर्तमान में सिरसागंज, फिरोज़ाबाद (उ.प्र.) शिक्षा : बीएस.सी. (अंग्रेज़ी माध्यम) गृह त्याग : 09.08.1994। क्षुल्लक दीक्षा : 09.08.1997, नेमावर। एलक दीक्षा : 05.01.1998, नेमावर। मुनि दीक्षा : 11.02.1998, माघ सुदी 15, बुधवार, मुक्तागिरीजी दीक्षा गुरु : आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज। कृतियाँ: आपने चाहे प्राकृत हो संस्कृत हो अथवा अंग्रेज़ी सभी भाषाओं में अनुपम एवं अद्वितीय कृतियों की रचना की है। प्रतिक्रमण ग्रन्थत्रयी, दार्शनिक प्रतिक्रमण, तिथ्यर भावणा, बरसाणु पेक्खा (कादम्बनी टीका), स्तुति पथ, प्रश्नोत्तर रत्नमालिका, अर्चना पथ, पाइए सिक्खा, अनासक्त महायोगी, श्री वर्धमान स्त्रोत, अन्तगूंज बेटा, नयी छहढाला, जैन सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य, मनोविज्ञान, लोक विज्ञान, Fact of Fate, Talk for Learners आदि 80 से भी अधिक कृतियों की रचना की है। अर्हं ध्यान योगः प्राचीन जैन श्रमण परम्परा पर आधारित आपने ध्यान योग की विधा को श्रावकों के लिए अर्हं ध्यान योग के रूप में सुगम बनाया।
श्री 108 प्रणायम्य सागरAdd a review
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