कोरोना महामारी और लॉकडाउन ने नौ महीनों से घरबन्द कर रखा है। लाचार एकान्त ने, संयोग से, रचने-समझने की इच्छा और शक्ति को क्षीण नहीं किया। इस पुस्तक में संगृहीत कविताएँ और 'कभी-कभार स्तम्भ के लिए हर सप्ताह लिखा गद्य इसी इच्छा और यत्किंचित् शक्ति का साक्ष्य हैं। बहुत कुछ स्थगित हुआ, दूसरे दूर चले गये, हमने उनसे विवश होकर दूरियाँ बना लीं, संवाद रू-ब-रू न होकर अपनी मानवीयता या कम-से-कम गरमाहट खोता रहा पर उनकी भौतिक अनुपस्थिति कविता और गद्य में सजीव उपस्थिति बनी रही। उनका इस तरह आसपास, फिर भी, होना कृतज्ञता से भर देता है। इस अर्थ में यह एक संवाद-पुस्तक है। अगर अब पाठक भी इस संवाद में अपने को शामिल महसूस करेंगे तो मुझे कृतकार्यता का अनुभव होगा। यह भरोसा हमारे भयाक्रान्त समय में ज़रूरी है कि हम अकेले पड़कर भी मनुष्य, थोड़े-बहुत ही सही, बने रहे। शब्द अगर अक्षर भी हैं तो ऐसे समय में वह हमें निर्भय भी करें ऐसी उम्मीद करना चाहिए। -अशोक वाजपेयी
तादेऊष रूजेविच (कवि, गद्यकार, नाटककार और निबंधकार) जन्म: 9 अक्टूबर, 1925 प्रमुख काव्य-कृतियाँ: अशान्ति, लाल दस्ताना, कविताएँ और चित्र, रुपहली बालियाँ, एक राजकुमार से बातचीत, हरा गुलाब, चुनी हुई कविताएँ, पत्थरतराशी, एक टुकड़ा हमेशा. रिसाइक्लिंग आदि। प्रमुख सम्मानों में क्रैको नगर का अलंकरण (1959), कला और संस्कृति-मंत्री का अलंकरण (1962), जर्मनी की ओर से सिलेसिया का प्रमुख सांस्कृतिक अलंकरण (1994) आदि। उनकी कविताओं का अनुवाद अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच, इटालियन, रूसी, चेक, डच, हंगारियन, स्वीडिश, डेनिश समेत बीस से अधिक भाषाओं में हो चुका है। उन्हें वारसा विश्वविद्यालय और क्रैको के याग्येलोन्यन विश्वविद्यालय ने डाक्टरेट की मानद उपाधि से भी विभूषित किया है। अपने भाई स्तानिस्लाव रूजेविच के लिए उन्होंने कई फिल्मों की पटकथाएँ भी लिखीं। 1968 से वे पोलैण्ड के व्रोत्स्लाव नगर में रह रहे हैं।
अशोक वाजपेयीAdd a review
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