उसे याद करते हुए - \nहर कवि चाहे वह कितना क्रान्तिकारी क्यों न हो, उसकी कविता के केन्द्र में प्रेम का निवास होता है। सृष्टि के लय, छन्द की तरह उसकी कविता जीवन के लय छन्द को पकड़ती और सहेजती है। प्रेम का अनुभव एक अनुष्ठान की तरह उसकी कविताओं की मनोभूमि में विन्यस्त होता है। नरेश अग्रवाल का यह कविता संग्रह उसे याद करते हुए प्रेम की इसी प्रतीति पर आधारित है जिसमें वे कहीं इस नतीजे पर पहुँचते है हृदय जब प्रेम के द्वार पर दस्तक देता है तो मन किसी खंजन की तरह मधुर कलरव में खो जाता है, वह जैसे संसर्ग के हर सर्ग की परिक्रमा का पुण्यफल अर्जित करता है, कुदरत की निर्वसन किन्तु अनिन्द्य आत्मा में बीज बनकर समाने की इच्छा लिए हुए बार-बार लौटने की कामना से प्रतिश्रुत होता है।\nनरेश अग्रवाल की ये कविताएँ जैसे नाप-जोखकर रची गयी हों, एक अनुभव, एक संवेदन, एक क्षण, एक कौंध, एक दृष्टि जैसे उसकी अनुभूतियों को कविता में बदल देती है। उनकी कविताएँ क्षेत्रफल मंत जगह कम घेरती है, आत्मा में किसी सूक्त की मन्त्रविद्ध गरिमा के साथ बजती है और प्रेम तो बाहरी सारे कोलाहल को अनसुना कर अपने ही राग में उपनिबद्ध हो उठता है। पूरी सृष्टि जैसे उसका मनुहार कर रही होती है।\nएक कविता में वे कहते हैं, "अंगूर और अंजीर के फल/उगते हैं तुम्हारे शरीर से/पकते हैं, गिरते हैं, मेरी झोली में/फिर से नये आते हैं/यही प्यार देने का तरीक़ा है तुम्हारा/तुम्हें पर्वत की ढलान समझता हूँ/ बिना माँगे लुढ़ककर/ये स्वतः चले आते हैं" हाँलाकि यह बहुत स्थूल तरीक़ा है प्रेम के प्रतिफल को सामने रखने का किन्तु यह अनुभूति हर बार पुनर्नवा होकर हृदय में उतरती है। कभी फूल, कभी पत्ती कभी फल बनकर और कभी इस अहसास के साथ कि जैसे न त्वहं कामये राज्यं! बकौल कवि, "छोड़ कर इन सारी चीज़ों को मैं झाँकता हूँ तुम्हारी आँखों में/न इसमें मकबरा देखता हूँ न ही महल/मुग्ध होता हूँ तुम्हारे सौन्दर्य पर।"\nइन कविताओं में अपार संसार में बहुत सी पुनरावृत्तियाँ हैं जो कि प्रेम में स्वाभाविक हैं और जो स्वाभाविक है वही कवि को काम्य है। यहाँ प्रतीक्षाएँ हैं, विरह है, अदेखापन है, उदासी है पर सब कुछ प्रेम के आईने में झिलमिल करता हुआ। साधारण से दिखते वाक्यों में प्रेम का व्याकरण बेहद सधा हुआ है, कविता के ढीले तारों पर अपनी तरह से झंकार उठाता हुआ बिम्ब-प्रतीकों और अलंकारों से बहुत लदी-फँदी न होकर अपनी सहजता में कुछ छू लेने जैसा भाव सहेजे नरेश अग्रवाल की कविताएँ प्रणय की भूलभुलैया में खोई नागरिक चेतना को मार्ग दिखाती हैं, इसमें सन्देह नहीं।\nप्रेम कविताओं के अध्ययन में इन कविताओं की भी अपनी भूमिका होगी, इसमें संशय नहीं।—ओम निश्चल
नरेश अग्रवाल - 1 सितम्बर, 1960 को जमशेदपुर में जन्म। अब तक स्तरीय साहित्यिक कविताओं की 11 पुस्तकों का प्रकाशन, स्वरचित सुक्तियों पर 3 पुस्तकों, शिक्षा सम्बन्धित 4 पुस्तकों का प्रकाशन 'इंडिया टुडे' एवं 'आउटलुक' जैसी पत्रिकाओं में भी इनकी समीक्षाएँ एवं कविताएँ छपी हैं। देश की लगभग सारी स्तरीय साहित्यिक पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित। जैसे हंस, वागर्थ, आलोचना, परिकथा, जनसत्ता, कथन, कविकुंभ, किस्सा कोताह, आधारशिला मंतव्य, समय सुरभि अनंत, वर्तमान साहित्य, दोआबा, दस्तावेज़, नवनिकष, दैनिक जागरण, प्रभात ख़बर, बहुमत, ककसाड़, दैनिक भास्कर आदि। पिछले 9 वर्षों से लगातार 'मरुधर के स्वर' रंगीन पत्रिका का सम्पादन कर रहे हैं, जो आर्ट पेपर पर छपती है। 'हिन्दी सेवी सम्मान', 'समाज रत्न', 'सुरभि सम्मान', 'अक्षर कुंभ सम्मान', 'संकल्प साहित्य शिरोमणि सम्मान', 'जयशंकर प्रसाद स्मृति सम्मान', 'झारखण्ड-बिहार प्रदेश माहेश्वरी सभा सम्मान', 'हिन्दी सेवी शताब्दी सम्मान'। देश की ख्याति प्राप्त संस्था बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन, पटना द्वारा महामहिम राज्यपाल के कर कमलों द्वारा दिया गया। यात्रा के बेहद शौक़ीन तथा अब तक 14 देशों की यात्रा कर चुके हैं। निजी पुस्तकालय में साहित्य एवं अन्य विषयों पर क़रीब 5000 पुस्तकें संग्रहीत।
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