वाक्यपदीय के तृतीय काण्ड में, जिसे स्वतन्त्र रूप से प्रकीर्णक भी कहा गया हैे, अपोद्धृत पद और पदार्थ का विश्लेषण किया गया है। प्रस्तुत खण्ड में इसी काण्ड के क्रियासमुद्देश से लिङ्गसमुद्देश तक कारिका और उस पर हेलाराजकृत प्रकीर्णकप्रकाश का हिन्दी अनुवाद है। अनुवादक ने कहीं कहीं अर्थसंगति की दृष्टि से मूल पाठ में आवश्यक परिवर्तन किये हैं और मूल की व्याख्या के लिये विस्तृत टिप्पणियाँ भी जोड़ी हैं।\n\nक्रियासमुद्देश में भर्तृहरि ने क्रिया की अवधारणा पर विस्तार से विचार किया है। पाणिनि धातु की रूपात्मक परिभाषा देते हैं। भर्तृहरि के लक्षण के अनुसार साध्यरूप क्रमवान् अर्थ क्रिया है। इस लक्षण में प्रश्न उठता है कि “अस्ति” क्रिया की वाच्य कैसे है? सत्ता तो नित्य है, साध्य नहीं है और क्रमशून्य है। भर्तृहरि समाधान में कहते हैं कि “अस्ति” में कालानुपाती रूप का बोध होता है।\n\nतृतीय काण्ड में यद्यपि पद और पदार्थ का विश्लेषण किया गया है तथापि भर्तृहरि की दार्शनिक दृष्टि का परिचय इस काण्ड में भी सर्वत्र मिलता है। जन्म और नाश, इन दोनों भाव-विकारों का निरूपण भर्तृहरि परिणामवाद और विवर्तवाद दोनों दृष्टियों से करते हैं। वैशेषिक दर्शन में काल द्रव्य है जो एक, नित्य और विभु है। भर्तृहरि के मत में काल ब्रह्म की मुख्य शत्तिफ़ है जो सभी शत्तिफ़यों पर नियन्त्रण रखती है। वृत्ति में इसे ब्रह्म की स्वातन्=यशत्तिफ़ कहा है। काल यद्यपि एक ही है किन्तु उपाधियों के भेद से उसमें अनेकत्व का व्यवहार होता है। वे काल से सम्बन्धित कुछ भाषिक प्रयोगों की चर्चा भी करते हैं। लिङ्गसमुद्देश में वैयाकरणों की लिङ्गविषयक अवधारणा को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। इस विषय में वैयाकरण का अभिमत सिद्धान्त यही है कि लिङ्ग वस्तुधर्म है और सत्त्व, रजस् और तमस् गुणों की अवस्था-विशेष है। इसी प्रकार अन्य अवधारणाओं से सम्बद्ध अनेक महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर इन समुद्देशों में चर्चा की गई है।
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