दुनिया के इतिहास पर किसी का भी कुछ लिखना हिम्मत का काम है। मेरे लिए यह जुर्रत करना तो एक अजीब बात थी, क्योंकि मैं न लेखक हूँ और न इतिहास के जाननेवालों में गिना जाता हूँ। कोई बड़ी पुस्तक लिखने का तो मेरा खयाल भी नहीं था। लेकिन जेल के लंबे और अकेले दिनों में मैं कुछ करना चाहता था और मेरा ध्यान आजकल की दुनिया और उसके कठिन सवालों से भटककर पुराने जमाने में दौड़ता और फिरता था। क्या-क्या सबक्र यह पुराना इतिहास हमें सिखाता है? क्या रोशनी आजकल के अँधेरे में डालता है? क्या यह सब कोई सिलसिला है, कोई माने रखता है, या यह एक बेमानी खेल है, जिसमें कोई क़ायदा-क़ानून नहीं, कोई मतलब नहीं, और सब बातें यों ही इत्तफाक से होती हैं? ये ख़याल मेरे दिमाग़ को परेशान करते थे, और इस परेशानी को दूर करने के लिए इतिहास को मैंने पढ़ा और आजकल की हालत को मैंने समझने की कोशिश की। दिमाग़ में बहते हुए विचारों को पकड़कर कागज पर लिखने से सोचने में भी आसानी होती है और उनके नए-नए पहलू निकलते हैं। इसलिए मैंने लिखना शुरू किया। फिर इंदिरा की याद ने मुझे उसकी तरफ खींचा और इस लिखने ने उसके नाम पत्रों का रूप धारण किया।\n\nमहीने गुजरे। कुछ दिनों के लिए जेल से निकला, फिर वापस गया। सर्दी का मौसम खत्म हुआ, वसंत आया, फिर गर्मी और बरसात। एक साल पूरा हुआ. दूसरा शुरू हुआ और फिर वही सर्दी, वसंत, गर्मी और चौमासा। लिखने का सिलसिला जारी रहा और हलके हलके मेरे लिखे हुए पत्रों का एक पहाड़-सा हो गया। उसको देखकर में भी हैरान हो गया। इस तरह से करीच करीब उत्तानाक से यह मोटी पुस्तक बनी।
Add a review
Login to write a review.
Customer questions & answers